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________________ मो.मा. प्रकाश बागे नाही, बारम्बार एकरूप चितवनविषे छद्मस्थका उपयोग खावता नाहीं । मणधरादिकका | भी उपयोग ऐसें न रहिसके, ताते तेहू शास्त्रादि कार्यनिविषे प्रवत्त हैं । सेरा उपयोग गणधरादिकतें भी शुद्ध भया कैसें मानिए । ताते तेरा कहना प्रमाण नाहीं । जैसे कोऊव्यापारादि विष निरुद्यमी होय ठाला जैसे तैसें काल गमावे, तैसें तू धर्मविष निरुयमी होय प्रमादी । म यों ही काल गभावे है । कबहू किछु चितवनसा करे, कबहू बातें वनावे, कबहू भोजनादि || करै, अपना उपयोग निर्मल करनेकौं शास्त्राभ्यास तपश्चरण भक्तिमादि कार्यनिविषे प्रवर्त्तता नाहीं। सुनासा होय प्रमादी होनेका नाम शुद्धोपयोग ठहराय, तहां क्लेश थोरा होनेते जैसे कोई भालसी होय पस्था रहने में सुख माने, तैसें मानन्द माने है । अथवा जैसे सुपनेविषे । मापकों राजा मानि सुखी होय, तैसें भापकों भ्रमते सिद्ध समान शुद्ध मानि भाप ही मा: नन्दित हो है । अथवा जैसे कहीं रति मानि सुखी हो है, तैसें किछु विचार करनेविषे रति मानि सुखी होय, ताको अनुभवजनित भानन्द कहै है । वहरि जैसे कहीं भरति मानि उदास । होय, तैसें व्यापारादिक पुत्रादिककों खेदका कारण जानि तिनते उदास रहे है, ताको वैरा ग्य माने है। सो ऐसा ज्ञान वैराग्य तो कषायगर्मित है। जो वीतरागरूप उदासीन दशा। विष निराकुखता होय, सो सांचा आनंद ज्ञान वैराग्य ज्ञानी जीवनिकै चारित्रमोहकी हीनता | भए प्रगट हो है । बहुरि वह व्यापारादि ले छोड़ि यथेष्ट भोजनादिकरि सुखी दुवा प्रवर्ते है
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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