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मो.मा. प्रकारा
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सामर्थ्यहीन भया । तातै परमेश्वरकृत कार्य नाहीं। कोई अनुचर व्यंतरादिक ही चमत्कार दिखावे है। ऐसा ही निश्चय करना । बहुरि कोऊ पूछ कि, कोई व्यंतर अपना प्रभुत्त्व कहै, वा अप्रत्यक्षकों बताय दे, कोऊ कुस्थानवासादिक वताय अपनी हीनता कहै, पूछिए सो न बतावै, भ्रमरूपवचन कहै वा औरनिकों अन्यथा परिणमावै, औरनिकों दुःख दे, इत्यादि विचि-1 त्रता फैरों है, ताका उत्तर___व्यंतरनिविर्षे प्रभुत्वकी अधिकता हीनता तो है, परन्तु जो कुस्थानविषै वासादिक बताय || का हीनता दिखावै है सो तो कुतूहलते वचन कहै है । व्यंतर बालकवत् कुतूहल किया करै । सो।
जैसे बालक कुतूहलकरि आपको हीन दिखावे,चिड़ावे,गाली सुनें,बार पाडे, (ऊंचे स्वरसे रोवे) पीछे ।। हंसने लगिजाय,तैसेंही ब्यंतर चेष्टा करै हैं।जो कुस्थानहीके वासी होय,तो उत्तमस्थानविणे आवे हैं | तहां कोंनके ल्याए आवे हैं। आपहीत आवे हैं, तो अपनी शक्ति होते कुस्थानविष काहेकों रहें । तातें इनका ठिकाना तो जहां उपजै हैं, तहां इस पृथ्वीके नीचे वा ऊपरि है सो मनोज्ञ है। कुतूहलके लिए चाहै सो कहे हैं। बहुरि जो उनकों पीड़ा होती होय, तो रोवते रोवते हँसने कैसे लगि जाय । इतना है, मंत्रादिककी अचिंत्यशक्ति है, सो कोई सांचा मंत्रके निमित्त नैमिचिक संबन्ध होय, तौ वाकै किंचित् गमनादि न होय सकै वा किंचित् दुःख उपजै वा केई प्रबल वाकौं मनें करे, तब रहि जाय । वा आप ही रहि जाय । इत्यादि मंत्रकी शक्ति है।