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मो.मा. । अपेक्षा अज्ञानीके श्रद्धानविष भी मुक्तिकारण जाननेते अति अनुराग है। ज्ञानीके श्रद्धानविपे || प्रकाश
शुभबंधकारण जाननेते तैसा अनुराग नाहीं है । बाह्य कदाचित् ज्ञानीकै अनुराग घना ही है, | कदाचित् अज्ञानीके हो है ऐसा जानना । ऐसें देवभक्तिका स्वरूप दिखाया । अब गुरुभक्ति || वाकै कैसैं हो है, सो कहिए है
केई जीव आज्ञानुसारी हैं । ते तो ए जैनके साधु हैं, हमारे गुरु हैं, ताते इनकी भक्ति | करनी, ऐसे विचारि तिनकी भक्ति करे हैं । बहुरि केई जीव परीक्षा भी करै हैं ! तहां ए मुनि दया पाले है, शील पालें है, धनादि नाही राखे हैं, उपवासादि तप करै हैं, क्षुधादि परीषह सहै हैं, किसीसौं क्रोधादि नाहीं करें हैं, उपदेश देय औरनिकों धर्मविष लगावै हैं, इत्यादि गुण विचारि तिनविषै भक्तिभाव करे हैं । सो ऐसे गुण तो परमहंसादिक परमती हैं, तिनविर्षे
वा जैनी मिथ्यादृष्टीनिवि भी पाईए । तातें इनविषै अतिव्याप्तपनो है। इनकरि सांची परीक्षा * होय नाहीं । बहुरि जिन गुणनिकों विचारै है, तिनविषै केई जीवाश्रित हैं, केई पुद्गलाश्रित
है, तिनका विशेष न जानना, असमानजातीय मुनिपर्यायविषै एकत्व बुद्धि तें मिथ्यादृष्टि ही।
रहै है । बहुरि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी एकतारूप मोक्षमार्ग सोई मुनिनका सांचा लक्षण है। | ताको पहिचान नाहीं। जाते यह पहिचानि भए मिथ्यादृष्टी रहता नाहीं । ऐसें मुनिनका सांचा
खरूप ही न जाने, तो सांची भक्ति कैसे होय । पुण्यबंधकौं कारणभूत शुभक्रियारूप गुणनिकों । ३३६
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