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तारणतरण
श्रावकाचार
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अन्वयार्थ (अगुरस्य) मिथ्या गुरुको (गुरु) गुरु (मान्याः) माननेवाले (मूढदृष्टिं च संगताः) मिथ्या. दृष्टिपनेकी संगति करनेवाले (ते नरा) जो मनुष्य हैं वे (नस्य) नरक (यांति) जाते हैं उनको (शुद्धदृष्टि) शुद्ध सम्यकदृष्टि (कदाचन ) कभी भी नहीं होती है। अर्थात् उन्हें सम्यग्दर्शनका लाभ कठिन है।
विशेषार्थ-ऊपर जो कुछ कुगुरुका स्वरूप कहा गया है इस तरहके जो कुगुरु संसारमें फंसाने. वाले हैं उनकी जो भक्ति करते हैं, उनके मिथ्या उपदेशको मानके मूढताईसे कुदेवोंकी व कुधर्मकी आराधना करते हैं वे बहु आरम्भ व बहु परिग्रहके आसक्तवान जीव नरक आयु बांधकर नरक जाते हैं। उनको सम्यग्दर्शनका लाभ मिलना ऐसा दुर्लभ है कि मानों कभी होगा ही नहीं। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि उनको सम्यग्दर्शन कभी न होगा। परन्तु यह तात्पर्य है कि उनको सम्यः कका लाभ बहुत दुर्लभ है। उनके तीन मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धी कषायका बंध पड जाता है जिससे एक तो उनको सच्चे आत्मतत्वके उपदेश पानेका अवसर नहीं मिलता। यदि कदाचित् अवसर भी मिले तो उनका भाव नहीं जमता । गाढ मिथ्यात्वभाववालेको धर्मोपदेश उस तरह कटुक भासता है जैसे पित्तज्वर वालेको मीठा भोजन कडुआ मालूम होता है। ऐसा जानकर मिथ्या देव गुरु धर्मका आराधन कभी करना योग्य नहीं है।
लोक-अनृतं अचेतं प्रोकं, जिनद्रोही वचलोपनं ।
विश्वासं मूढजीवस्य, निगोयं जायते ध्रुवं ॥ ८७॥ अन्वयार्थ (वचलोपनं ) जिनेन्द्रकी आज्ञाको छिपाकर उपदेश करना (अनृतं ) मिथ्या ( अचेतं) अज्ञानरूप (जिनद्रोही) जिनेन्द्रसे विपरीत (मोक्तं ) कहा गया है। (विश्वास ) उसपर विश्वास करनेवाले (मूढनीवस्य ) मूर्ख बहिरात्माको (ध्रुवं ) निश्चयसे (निगोयं) निगोदमें (जायते) जन्म लेना पड़ता है।
विशेषार्थ-जिनेन्द्र भगवानने जैसा अनेकांत स्वरूप वस्तुको बताया है व शुद्धोपयोगको धर्म बताया है, संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य सिखाया है, अहिंसा पालनेका मुख्य कर्तव्य समझाया है। इत्यादि श्री जिनका जो उपदेश है उस उपदेशको लोपकर जैन गुरु नाम धराकर जो ऐसे गुरु द्वारा उससे विपरीतरागदेष वर्धक व मिथ्यात्व पोषक उपदेश किया जाना वह मिथ्या है, अज्ञानरूप
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