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वारणतरण
विशेषार्थ-यहा दिखलाया है कि पारधीके जालमें फंसकर पशुओंको एक जन्ममें ही रुदन कर करके दुःख उठाना पडता है, परन्तु जो कुगुरु पारधीके जाल में फंस जाते हैं वे जन्म जन्म में दुख उठाते हैं। मूढ प्राणी संसार शरीर भागोंके लोलुपी होते हुए कुगुरुके अधर्ममय पोशका
और कुगुरुका विश्वास कर लेते हैं। अनेक कुदेवोंको व अदेवोंको पूजते फिरते हैं। भय यह रखते हैं कि यदि उनको न मानेंगे तो ये हमसे नाराज होकर हमारा अनिष्ट कर देंगे। इस तरह कुदेव,
कुगुरू, कुधर्मको मानते हुए चार विकथाओंके रागमें फंसे रहते हैं। शिकथाओंका राग जाल है। y उसमें मूढताईसे विश्वास करना यही इस जालकी रस्सी है जिसमें मूढ प्राणी फंस जाते हैं। धर्मस
कथाकी रुचि न रखते हुए स्त्री कथा, भोजन कथा, चोर कथा, व राज कथा आदि अनेक मिथ्या पापयक्क कथाओंके पढने सुनने में लग जाते हैं । अधर्म पोषक अनेक कथाओंपर विश्वास कर लेते हैं। गुरु जन मूढ लोगोंको अधर्म में फंसाने के लिये ऐसी राग वईक व भय देनेवाली कथाएं रच देते हैं जिससे उनको यह भय होजाता है कि यदि हम इस मार्गपर न चलेंगे तो हमारा बहुत अहित होगा।
वास्तवमें जिन कथाओंसे आत्म परिणति आत्माकी शुद्धिके मार्गमें लग जावे-संसार शरीर भौगोंसे वैराग्यरूप होजावे, जीवदया, परोपकार व चारित्रमें दृढ़ होजावे, हिंसादि पापोंसे विरक्त बोजवि. सहके जालसे निकलनेका भाव दृढ कर सके; मानव जीवनको सफल कर सके वे तो यथार्थ कथाएं हैं। इनके सिवाय सर्व विकथाएं हैं। विकथाओं का विश्वास करके मिथ्यात्वका आराधन यहां करके घोर पाप बांधते हैं, मर करके दुर्गतिमें जाते हैं, महान कष्ट उठाते हैं। मिथ्यास्वके समान कोई बंधन नहीं है, कोई जाल नहीं है। इस जाल में फंसा प्राणी भव भवमें कष्ट पाता है फिर उस भोले जविको मनुष्य जन्म अनेक जन्मों में भी मिलना दुर्लभ होजाता है। तथा सच्चे गुरुका समागम तो बड़ा ही कठिन होजाता है। प्रयोजन यह है कि जो अपना हित करना चाहें वे कुगुरुओंकी संगतिसे अपनी रक्षा करें। श्लोक-अगुरस्य गुरुं मान्याः , मूढ दृष्टिं च संगताः ।
ते नरा नरयं यांति, शुद्ध दृष्टि कदाचन ॥ ८६ ॥
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