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________________ वारणतरण श्रावकर ॥८ ॥ विशेषार्थ-जैसे पारधीके जाल में पक्षी निवास करके फंस जाते हैं वैसे मूह प्राणी कुगुरु पारधीके अधर्मरूपी जालमें विश्वास करके फंस जाते हैं। उनको मूढताके वश यह ध्यान नहीं आता है कि यह धर्म नहीं है यह तो अधर्मका जाल है, यहां जावेंगे तो बंध जायगे। मृढ लोग रातदिन धनकी, पुत्रकी, यशकी,रोग रहित रहनेकी, न मरनेकी चिंतामें लगे रहते हैं। उनको आत्माके कल्याणका बिलकुल खयाल नहीं होता है। लौकिक पूजनके सिद्ध करने के लिये वे कुगुरुओंकी बातोंमें फंस जाते हैं। उनपर विश्वास करके कुदेवोंको मानने लगते हैं। अधर्मको आचरने लगते हैं। मिथ्या तप करके घोर कष्ट उठाते हैं। विषयोंके भोगकी तृष्णाको बढ़ा लेते हैं। इष्टके वियोगमें घोर आकुलता करते हैं। हिंसाकारी अनेक यज्ञोंको रचाते हैं । घोर आरम्भ करते हैं। वैराग्यमई पूजा पाठको छोडकर रागवईक पूजा पाठ व लीलामें फंस जाते हैं। इंद्रियोंको प्रिय ऐसे नाचने गाने में धर्म मान लेते हैं। युद्धादिकी कथाओंको पढकर रंजायमान होने में ही धर्म समझ लेते हैं। वीतराग विज्ञानमय शुद्ध आत्माकी परिणति धर्म है इस बातका न उपदेश पाते हैं न इस तरफ मन, वचन, कायको ले जाते हैं। यह सब कुगुरुके उपदेशका प्रताप है। श्लोक-कुगुरुं अधर्म विश्वस्ताः , अदेवं कृतताडनं । विकहा रागमय जालं, पाश विश्वास मूढयं ॥ ८४ ॥ बने जीवा रुदन्त्येवं, अहं बद्धं एक जन्मयं । अगुरं लोक मृढस्य, बन्धनं जन्म जन्मयं ॥ ८५ ॥ अन्वयार्थ—(कुगुरुं) खोटे गुरुका व ( अधर्म) खोटे धर्मका (विश्वस्ताः) विश्वास करते हुए (अदेवं) कुदेवोंके द्वारा (कृतताड़नं ) ताडन किए हुए अर्थात् कुदेवोंको भक्तिमें भयके कारण लगे हुए (विकहा) विकथा (रागमय ) का राग स्वरूप (जालं) जाल, जिसकी (विश्वासमूढयं) विश्वास मूढतारूपी (पाश) रस्सी है उसमें फंसे हुए (लोकमुढस्य) लोक मूढताके कारण (अगुरं ) कुगुरुओंके बारा (जन्म जन्मयं) जन्म जन्ममें (बंधनं ) घोर पंधन प्राप्त करते हैं जब कि (बने) वनमें (जीवा) पक्षीगण या मृगगण (अहं बढ़) हम बंध गए हैं (एवं ) ऐसा (एक जन्मयं) एक जन्ममें ही (रुदन्ति ) रुदन करते हैं।
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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