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श्रावकार
उत्तम प्रकारसे कर सके हैं उनको उपाध्याय पद होता है। आचार्य व उपाध्यायके कार्य प्रमत्तपिरत भरणतरण
छठे गुणस्थानमें ही होते हैं। जब ये ही ध्यानमग्न होते हैं तब ७में चढ़ जाते हैं। ८ से १२३ गुणस्थान ॥२०॥ तक साधु ध्यानमग्न ही रहते हैं इसलिये वे साधु ही हैं, साधन करनेवाले हैं। जब चार घातीय
कोका नाश होजाता है तब तेरहवें गुणस्थानमें अरहंत परमात्मा होजाते हैं। शुक्लध्यान सम्बन्धी शुद्धास्माकी भावनाका ही प्रताप है जो साधु आठवेंसे बारहवें में व फिर तेरहवेंमें आजाते हैं। वहां आयु पर्यंत रहते हैं । अन्तर्मुहर्त पहले दो शेष शुक्लध्यानोंको ध्याते हैं। चौदहवें गुणस्थानमें चौथे
शुकध्यान द्वारा चार शेष अघानीय कर्मों का भी विध्वंश करके मिड परमात्मा होजाते हैं। पांचों कही परम पद शुद्ध सम्यक्तकी भावनाके फल हैं। इनमें चार पद अनुव हैं, केवल एक सिद्ध पद ही
ध्रुव है व यथार्थ आत्माका स्वभावरूप है । सम्यक्ती उसको उपादेय समझकर उसीपर अपना लक्ष्यबिंदु रखकर शुद्धात्माकी आराधना करता रहता है।
श्लोक-मतिज्ञानं च उत्पाद्य, कमलासने कंठ स्थिते ।
ॐ वंकारं च ऊर्ध्वं च, तिय अर्थ साधं ध्रुवं ॥ २०४ ॥ अन्वयार्थ-(कंठस्थिते कमलासने) कंठके स्थानपर एक कमल बनाकर उसपर (ॐ वकारं च ऊर्ध्व च) श्रेष्ठको विराजमान करके जो (तिय अर्थ ) तीनों तत्वोंसे पूर्ण है अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्रमई है (ध्रुवं ) और परम्परासे चला आया अविनाशी पर है। इस ध्यानके द्वारा (मतिज्ञानं च उत्पा) मतिज्ञानको विशेष उत्पन्न करना चाहिये।
विशेषार्थ-यहां पांच इंद्रिय व मनद्वारा जो सीधा पदार्थों का ज्ञान होता है उस मतिज्ञानकी ॐ शक्तिको बढानेका उपाय बताया है जिससे अधिक दूर तकका विषय स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु
व श्रोत्रमें आसके तथा मनकी निश्चलता आत्मतत्वमें होसके। वह यह है कि एक कमल आठ पत्रोंका कंठस्थान पर विचारे, उसके मध्य में श्रेष्ट मंत्र ॐ को विराजमान करे । इसमें पांच परमेष्ठी गर्भित हैं। जिनमें रत्नत्रय धर्मका निवास है। इस ॐ को चमकता हुआ ध्यावे । कभी कभी पांचों परमेडीके गुणोंपर लक्ष्य देकर विचार जावे, कभी कभी रत्नत्रयका स्वरूप व्यवहारनयसे व कभी निश्चयनयसे विचार जावे। इसीके द्वारा शुद्ध आत्माका विचार करे। शुद्धात्माके ध्यानसे आत्मशक्ति
॥३०॥
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