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श्रावकाशर
तारणतरण
अभ्यास करनेसे शुखात्माका अनुभव होता है। यही स्वरूपाचरण निश्चय चारित्र है। इसीके साधक
, साधु, उपाध्याय तथा आचार्य होते हैं। ॥३४७
अरहंत भगवानके प्रत्यक्ष आत्माका साध्यरूप स्वरूपाचरण चारित्र विद्यमान है। सिद्ध भग. वानके भी साक्षात् यही चारित्र है। पांचों ही परमेष्ठियों के भीतर स्वरूपाचरणई निश्वर चारि४त्रकी ही महिमा है। इसके विना कोई भी परमेष्ठी नहीं होसका है। चरणानुयोगका अभ्यास निश्चय चारित्रका बहुत सहायी है।
श्लोकद्रव्यानुयोग उत्पाद्य, द्रव्यदृष्टी च संयुतं ।
अनंतानंत दिष्टंते, स्वात्मानं व्यक्तरूपयं ॥ ३५६ ॥ अन्वयार्थ-(द्रव्यानुयोग उत्पा) द्रव्यानुयोगका अभ्यास करना चाहिये (द्रव्यदृष्टी च संयुत) साथ में द्रव्यार्थिक नयसे शुख आत्माकी दृष्टी भी प्राप्त करनी चाहिये जिससे (स्वात्मानं अनंतानंत व्यक्तरूपयं र विष्टते) अपने शुद्ध आत्माके समान जगतकी अनंतानंत आत्माएं प्रगट रूपसे दिखलाई पड़ें।
विशेषार्थ-चौथा अनुयोग द्रव्यानुयोग है जिसमें छः द्रव्य, पांच अस्तिकाय, सात तत्व, नौ पदार्थोंका स्वरूप निश्चय तथा व्यवहार नयसे दिखलाया गया है। इन शास्त्रोंका रहस्य भलेप्रकार जानकर बंध और मोक्षका व संवर तथा निर्जराका स्वरूप समझकर छः द्रव्योंका परस्पर कार्य व सम्बन्ध जाकर सर्व लोककी व्यवस्थाको समझ ले फिर द्रव्यदृष्टिको प्रधान करके सामने लावे और
गहों द्रव्योंको जिनसे यह जगत भरा है अलग अलग शुद्ध अपने२ स्वरूपमें देखे । तब सब पुगल में परमाणु अलग अलग, सर्व जीव शुद्ध अलग अलग, सर्व असंख्पात कालाणु अलगर, धर्मास्तिकाय * अलग, अधर्मास्तिकाय अलग, आकाश अलग दिखलाई पड़ेगा । जैसा आप अपनेको द्रव्य दृष्टिके
द्वारा शुद्ध आत्मा जानेगा वैसा ही सर्व जगतमें भरे हुए अनंतानंत जीवोंको शुखात्मा जानेगा। १. ऐसा जानना ही द्रव्यानुयोगके जाननेका फल है। फिर वह अभ्यास करनेवाला सर्व विकल्पोंको
छोडकर मात्र एक अपने गुडात्मामें लयता प्राप्त करेगा, स्ससमयरूप होजायगा, स्वचारित्रमें मगन होजायगा यही द्रव्यानुयोगके शास्त्रोको पढनका फल है।