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तारणतरण
॥३४८॥
श्लोक- दिव्यं द्रव्यदृष्टी च नंतानंत चतुष्टं च
सर्वज्ञं शाश्वतं पदं । केवलं पद्मं ध्रुवं ॥ ३५७ ॥
अन्वयार्थ ~~( द्रव्यदृष्टी च दिव्यं) द्रव्धदृष्टि अपूर्व है, शोभनीक है ( सर्वज्ञं शाश्वतं पदं ) जो अपने आत्माको सर्वज्ञ व अविनाशी पदमें दिखाती है (नंतानंत चतुष्टं च ) जो अनंतज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख व अनंत वीर्यमय (केवलं) केवल असहाय पर संग रहित (धुवं ) निश्चल अविनाशी (पद्म) प्रफुल्लित कमलके समान विकसित व निर्लेप झलकाती है ।
विशेषार्थ – यहां शुद्ध निश्चयनय या द्रव्यार्थिक नयकी महिमा बताई है। जैसे भेदविज्ञानी विवेकीको तिलोंमें तेल व भूसी अलगर, धान्यमें चावल व भूसी अलगर, स्फटिकके माणिक में स्फटिक पाषाण व लाल डांक अलग २, चांदी सोनेके गहने में चादी सोना अलंग२, माणकसे जडी सोनेके अँगूठी में माणक व सोना अलग २, खीर में दूध, मीठा, चावल अलग२, रंगीन वस्त्रमें वस्त्र और रंग अलग ९ दिखता है वैसे मेदविज्ञानीको शुद्ध नय या द्रव्य दृष्टिके द्वारा देखते हुए अपना परका हरएक आत्मा सर्व ही आत्माएँ एक रूप, शुद्ध, परमात्मा सर्वज्ञके तुल्य सदा अविनाशी, अनंतचतुष्टयादि गुणोंसे अखण्ड भरपूर, सर्व पर द्रव्यके संग रहिन, एकाकी केवल स्वरूप, अपने स्वरूप में निश्चल, सर्व कर्मबंधकी व शरीरकी व रागादि मैलकी रचना से जैसे जलसे कमल अलिप्त है वैसे अलिप्त दिखते हैं। इस दृष्टिके द्वारा देखनेका अभ्यास समताभावको जागृत कर देता है, Treer foot कर देता है, वीतरागताकी व आत्मानुभवकी गुफा में पहुँचा जाता है, यह द्रव्यानुयोग द्रव्यदृष्टिको जो संसारके तमसे आच्छादित थी खोल देता है । यह मोक्ष मार्ग में परम सहाई है । श्लोक-चतुरगुणं च जानंते, पूजा वेदते बुधैः ।
संसारभ्रमणं मुक्तस्य, सुयं मुक्तिगामिनोः ॥ ३५८ ॥
अन्वयार्थ - (बुधैः ) बुद्धिमान पंडितोंको (चतुरगुणं च जानते ) इन चार अनुयोगोंको जानना चाहिये (पूजा वेदंत) व उनकी पूजा करनी चाहिये (सुर्य) यह श्रुतज्ञान (मुक्तिगामिनोः ) मोक्षमें जानेवाले प्राणीको (संसारे भ्रमणं मुक्तस्य ) संसारके भ्रमण से छुडानेवाला है ।
श्रावकाचार
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