________________
वारणतरण
॥११३॥
मानवका मृतक शरीर जैसे अशुद्ध है वैसे ही पशुका मृतक शरीर अशुद्ध है । जैसे मुरदेके भीतर अंतर्मुहूर्त पीछे अनगिनती मानव जातिके सम्मूर्छन जंतु पैदा होते हैं वैसे ही पशु मांस में पशु जातिके सन्मूर्छन जंतु पैदा होते हैं। यदि बिना मारे हुए ही स्वयं मरे हुए पशुका भी मांस मिल जाये तो भी नहीं खाना चाहिये । क्योंकि वह भी अनगिनती सम्मूर्छन पैदा होनेवाले अस जंतुओंका ढेर है । उसमें वारवार अनेक जंतु पैदा होते हैं तथा मरते हैं। इसीसे मांसकी दुर्गंध कभी नहीं जाती ।
पुरुषार्थसिद्धयुपाय में श्री अमृतचंद्र महाराज कहते हैं
मामास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीषु । सातस्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोतानाम् ॥ ६७ ॥
आमा वा पक्कां वा खादति यः स्पृशति वा पिशितपेशीम् । स निहन्ति सततनिचितं पिंडं बहुजीवकोटीनां ॥ ६८ ॥
भावार्थ – कच्चे, पके हुए, पंकते हुए मांसके टुकडोंमें निरंतर इसी जातिके सम्मूर्छन जंतुओंकी उत्पत्ति होती रहती है- जो कच्चे या पके मांसकी डलीको खाता है या छूता है सो कोटानुकोटि निरंतर एकत्र हुए जंतुभोंकी हिंसा करता है । सुभाषितमें अमित० कहते हैं
येऽन्नाशिनः स्थावरजंतुघातान्मांसाशिनो येऽत्र सजीवघातान् । दोषस्तयोः स्यात्परमाणुमेर्वोर्यथान्तरं बुद्धमतेतिवेद्यम् ॥१३०॥ अश्नाति यः संस्कुरुते निहन्ति ददाति गृहात्यनुमन्यते च । एते षडप्यत्र विनिन्दनीया भ्रमन्ति संसारवने निरंतरं ॥९६९॥
भावार्थ- जो कोई कहे कि अन्नादि फलादि खाने में भी तो स्थावर जीवोंकी हिंसा होती है उसका समाधान यह है । अन्नादिके व्यवहारमें मात्र स्थावर जीवोंकी हिंसा है जब मांसाहार में स जंतुओं की इतनी अधिक हिंसा है कि दोनोंकी हिंसा में परमाणु और मेरु पर्वत के समान अन्तर बुद्धिमानको जानना चाहिये । अधिक हिंसा से बचना ही बुद्धिमानी है । जो कोई मांस खाता है, पकाता है, पशुको मारता है, दूसरेको देता है, हाथ में लेता है, व उस मांस खानेको अच्छा सम झता है ये छहों ही निंदनीय हैं। वे छहों ही पाप बांधकर निरन्तर संसार वन में भ्रमते हैं। यहांपर ग्रन्यकर्ताने श्रावकों को दूसरी वस्तुओंकी तरफ भी ध्यान दिलाया है जिनमें मांसकासा दोष आता है उनमें एक जल भी है।
जल छानने की विधि-विना छना हुआ पानी त्रस जंतुओं सहित है, उसमें निरंतर त्रस जीव पैदा होते हैं, इसलिये जलको दोहरे गाढे छन्नेसे छानकर उसकी जिवानी जहांसे भरा हो
१५
श्रावकाचार
॥ १११ ॥