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________________ १२॥ हैं, वह अधिक धन पानेवाला भी कालातरमें धन गमाकर पछताता है। जिसमें नीतिपूर्वक थोडा लाभ व थोडी हानि हो कि जिसको सह सक्ता हो, आकुलता में हो ऐसा ही व्यापार व लेनदेन ग्रहस्थोंको करना योग्य है। YERNEHA वचनोंकी हारजीतके फंदे में फंसे हुए मानव तास, चौपड़, सतरंज आदि खेल करते हुए प्रतिदिन जीवनको अमूल्य समय घंटों नाश कर देते हैं। तथा हारके भय व जीतके तीन लोभमें पड़े हुए कषाय भावोंसे उतनी देर पापका ही घंध करते हैं। इस चाटका भी चटोरा धर्म कर्म व खानपान समय पर करना भूल जाता है। जीवनका समय अमूल्य है। उसे उपयोगी कामों में न लगाकर जूए आदि व्यसनों में लगाना अमृतको पैर धोने में खर्च कर देना है, जीवनके समयको वृथा नाश करना है। अतएव जो श्रावकोंका आचार उत्तम प्रकारसे पालना चाहें उनको हरतरहकी हारजीतका जूआ नहीं खेलना चाहिये । अशुद्ध भावोंसे अपना बिगाड नहीं करना चाहिये । श्लोक-मांसं रौद्रस्य ध्यानस्य, सम्मुर्छन यत्र दिष्टते । जलं कंदस्य मूलस्य, साकं सन्मूर्छनं तथा ॥ १०९ ॥ मन्वयार्थ-(मांस ) मांस खाना (रौद्रस्य ध्यानस्य) रौद्रध्यानका कारण है। (यत्र ) जहा (सम्मृछन) सम्मूर्छन त्रस जंतु (दिष्टते) दिखलाई पड़ते हैं (तथा) उसी तरह (जल) अनछना जल लेना (कंदस्य) कंदका खाना (मुलस्य) मूलका खाना (सार्क) शाक-भाजी (सन्मूर्छनं ) तथा अन्य पदार्थ जिसमें , सन्मूर्छन जंतु उत्पन्न हो, खाना है। विशेषार्थ-यहां दूसरे व्यसन मांस खानेका निषेध किया गया है। मांस बहुधा पशुओंके घातसे होता है। जो मांसाहारी होता है उसके दिल में पशु हिंसासे आनन्द भाव पैदा होता है। इसलिये उसके निरन्तर हिंसानन्दी रौद्रध्यान रहता है। दयावान प्राणी किसी भी तरह भूलकर भी मांसका ग्रहण नहीं करता है। जब जगतमें अन्न, फल, दूध, घी, मेवा आदि मांसकी अपेक्षा अधिक पौष्टिक पदार्थ मिलते हैं तब उनको ही खाकर जीवन यात्रा करना मानवका कर्तव्य है। प्राणीघातक मांसको लेकर तडफते हुए पशुओंकी कसाईखानों में हिंसा कराना उचित नहीं है। ॥११॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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