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________________ २५४॥ भिन्न हूं ऐसा जो अडान उसमें स्थिर होना सो सम्यकदर्शनका आचरण है, अर्थात् अपने आत्माके स्वरूपको यथार्थ निश्चय, जिसमें कोई शंका न रहे, वही दर्शनाचार है। वह सम्यकी इस बातको जानता है कि मेरा आत्मद्रव्य पर्यायकी दृष्टिसे वर्तमानमें अशुद्ध होरहा है कर्म बन्ध सहित है तो भी यह आत्मा अपने द्रव्य स्वभावकी अपेक्षासे शुद्ध है। इसका स्वभाव अनादिकालसे कोके ९ साथ रहते हुए भी चला नहीं गया है। जैसे सोना दीर्घकालसे पाषाणसे मिला है, तौभी सुवर्णने से अपना सुवर्णपना नहीं त्यागा वैसे निगोद पर्यायसे लेकर इस मनुष्य पर्याय में आते हुए अनंतभव धारण करते हुए भी इस आत्माने अपना आत्मपना कभी ही नहीं त्यागा । ऐसे अपने सच्चे आत्म-स्वरूपका दृढ निश्चय रखना सो सम्यक्त आचरण है। यह स्वरूप स्थिरतारूप नहीं है, मात्र श्रद्धारूप है। जब उपयोग अनेक पदार्थोंसे हटकर इस निश्चय किये हुए अपने ही आत्माके शुद्ध स्वरूपमें एकाग्र होजाता है तब संयमाचरण प्राप्त होजाता है। तय उपयोग मनके संकल्प विकल्पोंसे व इंद्रिय द्वारा जाननेके कार्यसे छूटकर अपने ही स्वामी उपयोगवान आत्मामें उसी तरह लय होजाता है जैसे निमककी डली खारे पानी में लय होजाती है। शुद्धात्माके अनुभव में स्थिरता पाना ही संयमाचरण है। यहीं शुद्धात्माका दर्शन होता है। यहीं आचरणकी सफलता प्राप्त होती है। यदि कोई बाहरी पांच अणुव्रत या महाव्रत पालता है-उपवास, व्रत, जप, तप करता है, घंटों आसन लगाता है, उनोदर आदि रस परित्यागादि तप करता है परंतु शुडात्मामें थिरता नहीं पाता है तो उसका आचरण सफल नहीं है। परंतु यदि अपने शुद्ध आत्माके अनुभव में ठहर जावे तो वह चारित्र सफल है। जहां स्वरूपाचरण चारित्र है वहीं शुद्धात्मीक दृष्टि है । यही परम मंगलकारी है। यही काँके बंधको संहार करनेवाली है। यही वारवार आराधने योग्य है। यही धर्मध्यान है व यही शुक्लध्यानका नाम पानी है। तत्वानुशासनमें कहा है न हीन्द्रियधिया दृश्यं रूपादि रहितत्वतः । वितस्तिन्न पश्यति ते अविस्पष्टतर्कणाः ॥ १६६ ॥ उभयस्मिन्निरुद्धे तु स्याद्विस्पष्टम तीन्द्रियं । स्वसंवेदनं हि तद्रू स्वसंवित्त्यैव दृश्यतां ॥ १६॥ भावार्थ-यह शुद्धात्मा इंद्रिय ज्ञानसे नहीं देखा जासक्ता है क्योंकि इंद्रियें रूपी पदार्थको y देखती हैं परन्तु यह आत्मा रूपादिसे रहित अमृर्तीक है। और न मनके वितर्क या विचार आत्माको ॥२५था
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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