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वारभतरण ॥२५३॥
भी इस निश्चय सम्यग्वारित्रका अभ्यास करना चाहिये । सम्यग्दृष्टीका मुख्य कर्तव्य है कि निज आत्माकी भावना करे । यद्यपि यह आत्मा कर्मोंसे लिप्त अशुद्ध है तथापि इसको शुद्ध निश्चय नयकी दृष्टिसे कमसे अलग करके देख लेना चाहिये। जैसे विवेकी मानव रंगसे मिले पानी में पानीको रंगसे भिन्न देखता है | तेली तिलोंमें भूसीसे भिन्न तैलको देखता है। धान्यमें चावल और छिलका मिला है तौभी पहचाननेवाला चावलको छिलकों से भिन्न देखता है। स्थान में तलवार है उसे चांदीकी तलवार चांदी की म्यान होनेके कारणसे कहते हैं तथापि समझदार चांदीकी म्यानको अलग और तलवारको अलग देखता है । उसी तरह भेद विज्ञानी सम्यग्दृष्टी महात्मा आत्माको अलग और कर्म प्रपंचको अलग देखता है। इस शुद्ध नयकी दृष्टिसे बुद्धिबलसे अपने आत्माको शुद्ध रूप ठहराकरके उसमें थिरता करना ही निश्चय सम्यञ्चारित्र है, इसीका अभ्यास हितकारी है । श्लोक - आचरणं त्रिविधं प्रोक्तं सम्यक्तं संयमं ध्रुवं ।
प्रथमं सम्यक् चरणस्य, अस्थिरीभूतस्य संयमं ॥२५४॥ चारित्रं संयमं चरणं, शुद्ध तत्त्व निरीक्षणं ।
आचरणं अवध्यं दिष्टं, सार्थ शुद्ध दृष्टितं ॥२५५॥
अन्वयार्थ – ( आचरणं द्विविधं प्रोक्तं ) आचरण दो प्रकारका कहा गया है ( सम्यक्तं संयमं ध्रुवं ) एक सम्यक्त आचरण, दूसरा निश्चल संयम आचरण ( प्रथमं अस्थिरीभूतस्य सम्यक्तचरणस्य संयमं ) प्रथम जो सम्यक्त आचरण है वह श्रद्धानमें स्थिर होकर के भी चारित्र अपेक्षा चंचल रूप है। उस चंचलपने को मेटकर स्थिर होना सो संयम है ( संयमं चरणं चारित्रं) ऐसे संयम भावमें चर्या करना सो दूसरा संयम आवरण या सम्यग्चारित्र | जहां (शुद्ध तत्त्व निरीक्षणं ) शुद्ध आत्मीक तत्वका ही अनुभव होता है वही (माचरणं अबंध्यं दिष्टं ) आचरण सफल देखा जाता है वही ( सार्थ शुद्ध दृष्टितं ) यथार्थ शुद्धात्माका दर्शन है । विशेषार्थ – यहां निश्चयनयकी अपेक्षा लेकरके भी व्यवहारनयसे चारित्र के दो भेद बताये हैंएक दर्शनाचरण, दूसरा संघमाचरण । मैं शुद्ध ज्ञाता दृष्टा आनन्दमई एक पदार्थ हूं, रागद्वेषादिसे
श्रावकाचार
॥ २५३ ॥