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________________ ॥२५॥ Vतौभी एक श्रावकका मुख्य कर्तव्य है कि शास्त्रोंका मनन करता हुआ ज्ञानका आचरण करता रहे। ज्ञानाचारही आत्माकी भावना दृढ रखनेको बडा भारी आलम्बन है। श्री मूलाचारमें ज्ञानाचारका स्वरूप कहा है मेण तचं वि वुझेज्न नेण चितं णिरुज्झदि । जेण अत्ता विमझेन तं गाणं मिणसासणे ॥७॥ जेण रागा विरजेज जेण सएसु रज्जदि । जेण मिती प्रभावेज तं गाणं निणसासणे ॥१॥ भावार्थ-जिसके द्वारा तत्वोंका यथार्थ ज्ञान हो, जिसके द्वारा मनके व्यापारका निरोध हो, जिससे आत्मा रागादि रहित वीतराग हो वही जिनशासनमें ज्ञानाचार कहा गया है। जिससे यह जीव रागादि विकारोंसे वैरागी हो, जिससे अपने निर्वाणके भीतर अनुरागी हो, जिससे प्राणी मात्रमें मैत्रीभाव बढ़ जाये वही जिनशासनमें ज्ञानाचार है। इस प्रकार ज्ञानका महात्म्य जानकर भव्य जीवको उचित है कि योग्य कालमें विनय पूर्वक चित्तको समाधान करके ज्ञानकी आराधना करे। ज्ञानापास जीवनको सदा आनन्द प्रदान करने वाला प चिंताओंको मेटनेवाला है। श्लोक-आचरणं स्थिरीमृतं, शुद्ध तत्व ति अर्थकं । ॐवकारं च विदंते, तिष्ठते शाश्वतं पदं ॥ २५३ ।। अन्वयार्थ शुद्ध तत्व ति अर्थक स्थिरीभूतं ) शुद्ध आत्मीक तत्वमें जो तीन गुणोंका अर्थात् रस्न अयका स्थिर होजाना सो (आचरण) सम्पकचारित्र है। जहां (ॐ वकारं च विंदन्ते ) ॐ गर्भित परमात्माका अनुभव होता है जो (शाश्वतं पदं तिष्ठते) अविनाशी पदमें विद्यमान है। विशेषार्थ-पहले दर्शनाचार व ज्ञानाचारको कह चुके हैं, अब चारित्राचारको कहते हैं। निश्चय सम्यग्चारित्रका वही स्वरूप है जो अपने ही शुद्ध आत्मस्वरूप में उपयोगको जमा दिया जाय। यह आत्मा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र स्वरूप है। आत्माका अनुभव करते हुए तीनों गुणोंकी एकतामें परिणति जम जाती है वही साक्षात् मोक्षमार्ग है। ॐकारको नमस्कार किया जाता है क्योंकि उससे पांच परमेष्ठीमें गर्मित शुद्धास्माका संकेत होता है। उसी शुद्धात्माका अनुभव स्वानुभवमें होता है। शुडात्माका शुखात्मा रूप रहना यही अविनाशी पद है। यहां यह दिखलाया है कि श्रावकको ॥२५॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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