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धरणवरण
श्रावसकर
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शुद्ध आत्मीक ज्ञानकी भावना करते रहनेसे अवधिज्ञानकी दीप्ति व मन:पर्यय ज्ञानकी दीप्ति भी चमक जाती है। जिन ज्ञानों के प्रभावसे सूक्ष्म रूपी पदार्थोंका ज्ञान होने लगता है तथा उसी आत्मध्यानसे उन्नति करते २ जब वह ध्यान शुक्लध्यानके रूपमें होजाता है-एकाग्र शुद्धोपयोग होजाता है तब वही ज्ञान केवलज्ञानके रूपमें परिणत होजाता है। अर्थात् पांच प्रकारके ज्ञानावरणीय कर्मका नाश होजाता है और केवलज्ञान प्रकाशमान होजाता है। यह केवलज्ञान सर्व ज्ञानों में श्रेष्ठ है। इसके प्रगट होते हुए अन्य चार ज्ञानोंकी जरूरत नहीं रहती है। यह केवलज्ञान सर्व द्रव्योंको और
सर्व द्रव्योंकी सर्व पर्यायौंको एक साथ जान लेता है। साथ ही निजात्माका प्रत्यक्ष दर्शन जो ॐ अवतक न था सो होजाता है। श्रुतज्ञानसे शुद्धात्माका अनुभव यद्यपि स्वसंवेदनरूप प्रत्यक्ष है तथापि शास्त्र बलपर खडा हुआ परोक्ष ही है। जब केवलज्ञानका प्रकाश होजाता है तब प्रत्यक्ष
शुद्ध आत्माका यथार्थ अनुभव होजाता है। निरालम्ब केवल आत्मबोध होजाता है। इसलिये y उपासकको नित्य ही सम्यग्ज्ञानकी आराधना करते रहना चाहिये।
श्लोक-ज्ञानं लोचन भव्यस्य, जिनोक्तं सार्थं ध्रुवं ।
सुये तत्वानि विज्ञानं, शुद्ध दृष्टिः समाचरतु ॥ २५२ ॥ अन्वयार्थ-(भव्यस्य ) भव्य जीवकी (लोचन ) आंख (ज्ञानं ) ज्ञान है। जो (साथै भुवं ) यथार्थ है निश्चल है (निनोक्तं) ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है। (शुद्ध दृष्टिः) सम्यग्दृष्टी जीव (सूये ) श्रुतज्ञानके द्वारा (तत्वानि विज्ञानं समाचरतु) तत्वोंका विशेष ज्ञान प्राप्त करें।
विशेषार्थ-भव्यजीव जगतके पदार्थोंको ज्ञानरूपी आंखसे देखता है जो अंतरंगमें प्रकाशमान रहती है। दोनों अखें तो मात्र रूपी स्थूल पदार्थों को ही जो वर्तमानमें सामने हैं उनहींको देख सती हैं । परन्तु शास्त्र ज्ञानसे प्राप्त हुई सम्यग्ज्ञानकी आंख सर्व पदार्थीको यथार्थ देख लेती है। जैसे पदार्थ जगतमें यथार्थ हैं उनको वैसा ही ठीकर जान लेना ही ज्ञान लोचनका कार्य है ऐसा श्री जिनेन्द्र भगवानने कहा है। जहांतक केवलज्ञानका लाभ न हो वहांतक सम्यग्दृष्टीको उचित
है कि शास्त्रोंका अभ्यास करते हुए तत्वोंका विशेष ज्ञान बढाता रहे। शास्त्र समुद्र अगाध है, . नित्य अभ्यास करते हुए भी १०० वर्षका जीवनवाला मानव बहुत थोडा ही पार पासका है।
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