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________________ कारणवरण तथा शुद्ध तीर्थस्वरूप शुद्धात्माका झलकानेवाला हो (ज्ञानं ज्ञान प्रयोजनं ) ज्ञानसे ज्ञानकी उन्नतिका ही ॥१५॥ प्रयोजन हो ही ज्ञानाचार है। विशेषार्थ-अय सम्यग्ज्ञानाचारको कहते हैं। सम्यग्ज्ञान वही है जो जीवादि सात तत्वोंको यथार्थ बतावे तथा निर्दोष वस्तु स्वभाव बतावे व मुनि श्रावकका यथार्थ आचरण बतावे, लोकालोकका ठीक स्वरूप समझावे, महान पुरुषों के जीवनचरित्रोंको यथार्थ बतावे । अर्थात् जो यथार्थ रूपसे प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग व द्रव्यानुयोग रूप हो। इन चार अनुयोगोंके प्रकाशक यथार्थ ज्ञानके दाता शास्त्रोंका पढना सुनना सम्यग्ज्ञानका आचरण है। मुख्य अभिप्राय शास्त्र ज्ञानका यही है कि संसार तारक शुद्ध आत्माका अनुभव प्राप्त हो । स्वात्मानुभव ही मोक्षमार्ग है V या तीर्थ है। सम्यग्ज्ञानका या स्वसंवेदन ज्ञानका आचरण ही ज्ञानकी वृद्धिका कारण है, यही केवलज्ञानका द्योतक है। अतएव अतिशय प्रेम करके आत्मज्ञानकी वृद्धिकारक शास्त्रोंका पठन पाठन रखते हुए ज्ञानाचारका पालन करना उचित है। श्लोक-ज्ञानेन ज्ञानमालम्ब्यं, पंच दीप्ति परस्थितं । ___ उत्पन्नं केवलज्ञानं, साधं शुद्धं दिष्टितं ॥२५१ ॥ मन्वयार्थ (ज्ञानेन ) सम्यग्ज्ञान या श्रुतज्ञानके द्वारा (ज्ञानं ) आत्मज्ञानको (लम्ब्यं ) दृढ करना चाहिये, जिससे (पंच दीप्ति परस्थितं) पंच प्रकार ज्ञानों के भीतर श्रेष्ठ रूपसे स्थित जो (केवलज्ञानं ) केवलज्ञान सो (उत्पन्न) पैदा होजावे । और (साघ) साथ ही (शुद्धं दृष्टितं) शुद्ध आत्मीक प्रत्यक्ष दर्शन होजावे । विशेषार्थ-शास्त्र ज्ञानका भलेप्रकार अभ्यास ऐसा करना चाहिये जिससे आत्मा व अनात्माका दृढ ज्ञान संशय रहित होजावे, भेदविज्ञान पैदा होजावे। भीतरसे ऐसा झलक जावे कि मेरा आत्मा वास्तव में सर्व राग द्वेषादि विकारोंसे व ज्ञानावरणादि कर्म मलोंसे व शरीरादिसे रहित है। ऐसा भेद ज्ञान होनेपर जब इसीकी भावना वारवार की जाती है और आत्माका अनुभव किया जाता है तब जितना २ आत्मध्यान बढ़ता है उतना २ ज्ञानावरणीय कर्मका क्षयो. पशम होता है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञानकी शक्ति बढती जाती है। इसी आत्मध्यानकी योग्यतासे संपूर्ण बादशांगका ज्ञान होजाता है, आत्मा श्रुतकेवली होजाता है, अनेक ऋद्धियें सिद्ध होजाती हैं,
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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