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वारणवरण
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विशेषार्थं गृहस्थ श्रावकको रत्नश्रयके आचरण में प्रथम सम्यग्दर्शन के आचरणका उपदेश है । इस दर्शनाचार में यही उचित है कि २५ दोषोंको न लगाता हुआ सम्पक्तकी दृढता जिस तरह रहे उस तरह वर्तन करें । श्रद्धान कभी शिथिल न होने पावे किन्तु दिनपर दिन दृढ होता चला जावे, ऐसा उद्यम रखना योग्य है । २५ दोषोंका वर्णन पहले कर आए हैं। जाति, कुल, धन, अधिकार, रूप, तप, बल व विद्या इन आठ प्रकारकी शक्तियोंके होते हुए कभी भी अभिमान नहीं करना चाहिये । जो पर वस्तुको या क्षणभंगुर पदार्थको अपनी मानेगा वही मान करेगा। सम्यक्ती तो सिवाय अपनी शुद्ध आत्माके और किसीको अपनी नहीं मानता, इससे उसके धनादिका कभी भी मान नहीं होता है। वह सदा अनित्य भावना भाता हुआ इनकी तरफसे उदासीन भाव ही रखता है । इसी तरह आठ शंकादि दोष भी नहीं लगाता है। वह निर्भय होकर व निःशंक दृढ श्रद्धालु होकर धार्मिक क्रियाओंको पालता है। विषयभोगोंकी अभिलाषा करके कांक्षा दोष नहीं लगाता है। रोगी दुःखी मानवों व पशुओं को देखकर घृणा नहीं करता है । मूढतासे कोई धर्मक्रियाको नहीं करता है । धर्मात्माओं के कर्म उदय से लगे हुए दोषोंको ढूंढ ढूंढकर उनकी निंदा नहीं करता है, आपको व परको धर्ममें स्थिर रखता है। धर्मात्माओंसे गोवत्स सम प्रीति रखता है। धर्मकी उन्नति में सदा उत्साही रहता है। लोक मूढता, देव मूढता व पाखण्ड मृढता से बचता है। कुदेव, कुगुरु, कुधर्म उनके भक्तों की गाढ संगति नहीं करता है। इस तरह २५ दोषोंको बचाकर निर्मल सम्पक्तका आचरण पालता है । व्यवहार धर्मकी ऐसी क्रियाओंको पालना जिनसे श्रद्धान दृढ रहे यही सम्पक्तका आचरण है। जैसे श्री जिनेन्द्र भगवानकी पूजा, भक्ति, स्तुति, वंदना, गुरुभोंके द्वारा उपदेश श्रवण, शास्त्रोंका भलेप्रकार स्वाध्याय करना, सवेरे सांझ आत्माके मननके लिये सामायिकका अभ्यास रखना । इत्यादि कार्य करते रहना चाहिये तब ही सम्पक्त दृढ रह सकेगा ।
श्लोक - ज्ञानं तत्वानि वेदंते, शुद्ध समय प्रकाशकं ।
शुद्धात्मानं तीर्थं शुद्धं, ज्ञानं ज्ञान प्रयोजनं ॥ २५० ॥
अन्वयार्थ - ( ज्ञानं तत्वानि वेदंते ) ज्ञान वही है जो जीवादि सात तत्वोंको अनुभव करावे ( शुद्ध समय प्रकाशकं ) जो शुद्ध निर्दोष पदार्थोंका व शास्त्र सम्बन्धी विषयोंका प्रकाशक हो (शुद्धात्मानं शुद्धं तीर्थं
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श्रावकाचार
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