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बारणवरण
श्रावकाचार
देख सके। क्योंकि वे सर्व तर्कनाएं स्पष्ट व स्थिर नहीं हैं। जब इन्द्रिय ज्ञान व मनके संकल्प विकल्प दोनों रोक दिये जाते हैं तव विशेष स्पष्ट साफ साफ इंद्रिय रहित अतीन्द्रिय अपना स्वरूप जो अपनेसे ही अनुभव करने योग्य है अनुभव में आता है। उसीको स्वानुभवके द्वारा ही अनुभव करना चाहिये, देखना चाहिये, यही यथार्थ सम्यक्चारित्र है, इरएक गृहस्थ श्रावकको अभ्यास करना योग्य है।
श्लोक-पात्रं त्रिविधि जानते, दानं तस्य सुभावना ।
जिनरूपी उत्कृष्टं च, अव्रतं जघनं भवेत् ॥ २५६ ॥ अन्वयार्थ (त्रिविधि पात्रं जानते) पात्र तीन प्रकार जानने चाहिये (सुभावना तस्य दानं ) शुभ भावोंसे ॐ उनको दान करना चाहिये (उत्कृष्टं च मिनरूपी) जो तीर्थकरके समान नग्न दिगम्बर रूपके धारी निग्रंथ मुनि हैं वे उत्कृष्ट पाश हैं (अव्रतं जघनं भवेत् ) जो व्रत रहित सम्यग्दृष्टी हैं वे जघन्य पात्र हैं।
विशेषार्थ-अब यहां यह बताते हैं कि गृहस्थोंको दान करना बहुत जरूरी है। गृहस्थोंका दान धर्म मार्गका चलानेवाला है । दानका लक्षण कहा है-" अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानं " अपना और दूसरेका उपकार हो इसलिये अपने धनादिका त्याग करना सो दान है। अपना उपकार तो लोभका त्याग होना व मंद कषायसे पुण्यका लाभ होना है। व दान लेनेवाले पात्रका धर्म साधन व धर्ममें अनुराग बढता है। धर्मकी उन्नति गृहस्थोंके आधीन है। सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रके साधक तीन प्रकारके पात्र होते हैं, उनको भक्तिपूर्वक दान करना उचित है। उत्तम पात्र जिनरूपी हैं, अर्थात् १ निग्रंथ साधु परिग्रह त्यागी हैं। जघन्य पात्र बाहरी प्रतिज्ञारूप बारहवत रहित सम्यग्दृष्टी हैं। मध्यम पात्र व्रत पालनेवाले श्रावक हैं। इनकी यथायोग्य भक्ति करके बहुत ही श्रद्धा व उत्साह पूर्ण भावोंसे आहारादिका दान करना चाहिये । दान देते हुए अपनेको धन्य मानना चाहिये । दातारका यह भाव रहना चाहिये कि मेरे निमित्तसे यदि धर्मात्माओंके धर्मसाधनमें स्थिरता न हुई तो मेरा धन निरर्थक है। मेरे गृहस्थपनेकी शोभा ही दानसे है। नित्य मुझे दान किये विना अन्न नहीं खाना चाहिये।