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________________ भूमिका भूमिका ॥२॥ पालक हों व जो शुद्ध संयमको व रत्नत्रय धर्मको व मरहंतके स्वरूपको व शुद्ध द्रव्यको साधते हों वह साधु हैं। यह साधुका बहुत बढ़िया स्वरूप है। भोजन शुद्धिपर लिखा है स्वाद विचलितं येन, सन्मूर्छन तस्य उच्यते । जे नरा तस्य भुक्तं च, तियचं नर संति ते ॥११॥ फलस्य संपूर्ण भुक्त, सम्मूर्छन त्रस विभ्रमः । जीवस्य उत्पादनं दृष्ट, हिंसाबंदी मांस दूषनं ॥११२॥ भावार्थ-जिसका स्वाद चलायमान होजावे उसमें सन्मूर्छन बस पैदा होते हैं। जो मानव भक्षण करते हैं वे पशु समान हैं। किसी फल को पूरा विना देखे तोड़े न खाना चाहिये, उसमें सन्मूर्छन त्रसोंकि उपननेकी शंका है। जो बिना तोड़े खाते हैं वे * हिंसानंदी हैं व मांसके दोषको पाते हैं। मविरत शुद्ध सम्यक्ती ५१ क्रियाओंमेंसे मठारह पालता है। शेष ३५ की भावना करता है। ऐसा बड़ा ही मार्मिक व चारित्रकी वृद्धिकारक कथन तारण स्वामीने किया है। वे श्लोक हैं जघन्यं अव्रतं नाम, जिनउक्तं जिनागमं । साधै ज्ञानमयं शुद्धं, क्रिया दस अष्ट संजुतं ॥ १९८ ॥ सम्यक्तं शुद्ध धर्मस्य, मूलं गुणं च उच्यते । दानं चत्वारि पात्रं च, साध ज्ञानमयं ध्रुवं ।। १९९ ॥ दर्शन ज्ञानचारित्रै, विशेषितं गुण पूजयं । अनस्त्रमितं शुद्ध मावस्य, फासूमल जिनागर्म ॥२०॥ एतत्तु क्रिया संजुत्ते, शुद सम्यग्दर्शनं । प्रतिमावततपश्चैव, भावना कृत सार्धयं ॥ १.१॥ भावार्थ-जधन्य अविरत सम्यग्दृष्टी ५३ क्रियाओंमेंसे १८ पाळता है। पाठ मूळगुण +चार दान +सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रकी भावना +रात्रि भोजन त्याग +पानी छानकर पीना +समताके लिये जिनागम पठन=१८ क्रियाएं हैं तथा १२ व्रत+१२ तप +११ प्रतिमा ३५ क्रियाओंकी भावना रखता है। अध्यात्मज्ञान व नयोंद्वारा शास्त्रज्ञानका नमूना यह है__ शुद्ध धर्म च प्रोक्तं च, चेतनालक्षणो सदा। शुद्ध द्रव्याथिक नयेन, धर्म कर्म विमुक्तयं ॥ १९८॥ भावार्य-शुद्ध द्रव्यार्थिक नबसे शुद्ध धर्म चेतनाका गुण है तथा कर्मरहित आत्माका स्वभाव है। इस अन्यके कर्ता श्री तारणतरण स्वामी थे। यह दिगम्बर जैन मुनि थे ऐसा किनहीका कहना है, किनहीके विचारसे यह ब्रह्मचारी थे । इसमें संदेह नहीं कि यह एक धर्मके अता मात्मरमी महात्मा थे । इनके व्यनसे प्रगट है कि यह श्री कुन्दकुन्दाचार्य शास्त्रोंके ज्ञाता थे। इनका जोवनचरित्र को कुछ मिका बहुत संक्षेपसे यहां दिया जाता है जनहितैषी अंक वीर सं० २१३९ को देखकर व सागरके भाइयोंसे मालूम कर लिखा जाता है। इसमें जो ऐतिहासिक V ॥२॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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