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________________ भूमिका भूमिका A Owww Wwwm भूमिका। यह श्रावकाचार अन्य किसी विशेष भाषामें नहीं है। इसमें संस्कृत भारत देश माषाके मिश्रित शब्द हैं। किसी खास व्याकरणके माधार पर रचित नहीं है। इसकी भाषा टीका लिखते समय हमारे पास चार प्रतियें थीं-तीन सागरकी व एक ककितपुरको । सागरकी एक प्रति प्राचीन लिखो मन्य दोकी अपेक्षा शुद्ध है । ललितपुरकी प्रति सबसे शुद्ध है। श्रावकाचार ग्रन्थ इस प्रतिमें संबत १६५४ कार्तिक मुंदी १३ का लिखा हुमा प्राचीन है। यथाशक्ति शब्द शुद्ध करके अर्थको समझकर भाव लिखा गया है । इस ग्रन्थमें यद्यपि पुनरुक्ति कथन बहुत है तथापि सम्यग्दर्शन तथा शुद्धात्मानुभवकी दृढ़ता स्थान स्थान पर बताई है। कोई कथन श्री कुन्दकुन्दाचार्य व श्री उमास्वामी के दिगम्बर जैन सिद्धांतके प्रतिकूल नहीं है। प्राचीन दिगम्बर जैन शास्त्राधारसे ही ग्रंथ संकलित किया गया है। हमने भावोंको समझकर भाव दिखाने का प्रयत्न किया है । शब्द शुद्धिका विचार यथासंभव किया गया है। अबतक जो दिगम्बर जैनसमाजमें श्रावकाचार प्रचलित हैं उनमें मात्र व्यवहारनयका ही कथन अधिक है परन्तु इस ग्रन्थ में निश्चयनयकी प्रधानतासे व्यवहारका कथन है । पढ़नेसे पदपद पर अध्यात्मरसका स्वाद माता है । इसके कर्ता अध्यात्म शास्त्र व व्यवहार शास्त्र के अच्छे मर्मी थे । यह बात ग्रंथको आद्योपांत पढ़नेसे विदित होजायगी। वे सिद्धांतके ज्ञाता थे इसके प्रमाण में कुछ श्लोक नीचे दिये जाते हैं त्रिविधि पात्रं च दानं च, भावना चिन्त्यते बुधैः। शुद्ध दृष्टि रतो जीवः, अट्ठावन लक्ष त्यक्तयं ॥ २६७।। नीच इतर अप तेज च, वायु पृथ्वी वनस्पती। विकलत्रयं च योनी च, अहावन लक्ष त्यक्तयं ॥२६॥ भावार्थ-नो सम्यग्दृष्टी तीन पात्रोंको दानकी भावना करे व शुद्धात्मामें रत हो वह ८४ लाख योनियोंसे ५८ लाख योनियों में कभी पैदा नहीं होगा । नित्य निगोद, इतर निगोद, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु इनमें प्रत्येकमें सात सात लाख । तथा र प्रत्येक वनस्पतिके १० लाख, विकलत्रयके ६ लाख-कुल ४२+१+६=१८ लाख-योनियोंमें सम्यग्दृष्टी नर तिर्यच नरक मायु बांधनेपर भी कभी नहीं जायगा। मात्र पंचेन्द्रिय उत्पन्न होगा। यह बड़ी विद्वत्ताका नमुना है। साधुका स्वरूप लिखा है ज्ञानचारित्र सम्पूर्ण, क्रिया त्रेपण संयुतं । पंचव्रत पंच समिति, गुप्ति त्रयप्रतिपाळनं ॥ ४४६ ॥ . सम्यग्दर्शनं ज्ञानं, चारित्रं शुद्ध संयमं । जिनरूपं शुद्ध द्रव्याथ, साधो साधु उच्यते ॥ ४४८ ॥ भावार्थ-जो ज्ञान चारित्रसे पूर्ण हों, श्रावककी १३ क्रियासे संयुक्त हों, पांच महाव्रत पांच समिति व तीन गुप्तिके ॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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