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________________ भूमिका भूमिका अनुमान व हमाग निजका विचार दिखलाया गया है उसके लिये हम स्वयं जिम्मेदार हैं। तारणतरण समाजके भाई उसके लिये जिम्मेदार नहीं हैं। . . पुष्पावती नगरमें इनके पिता गढ़ासाहु रहते थे। यह परवार सेठ थे, तथा दिहली के बादशाहके यहां किसी कामपर नियत थे । पुष्पावती नगरी पेशावरको कहते हैं, पेशावरको पुष्कलावती या पुष्पावती पहले कहते थे । मालूम होता है कि गढ़ासाहके नाधीन कोई महान् काम बादशाहकी तरफसे पेशावरमें होगा । गढ़ासाहुनीकी धर्मपत्नी वीरश्री थी। ग्रंथकर्ता होनहार पुत्र वि. संवत १५.५ (वसन् १९१८)बगहन सुदी ७ को जन्मे थे। अब दिहलीमे सन् १९४८ में भकाउद्दीन सय्यद राज्य करते थे फिर मुस्तान बहलोल कोधी सन् १९५० में बादशाह हुए जब यह पांच वर्षके थे। इसके पिताके ऊपर कोई कर्मके उदयसे मापत्ति पाई तब यह अपना सब सामान लेकर मारुवा देशमें आये । और गडौका (जिला सागर खुरई तहसीक खिमलासेके पास) में जाकर डेरा किया। वहां एक श्रुतमुनि बिराजमान थे । उनका दर्शन करके साहुनी व सेठानी व यह पुत्र बड़े भानंदित हुए। मुनि महारानने पुत्र को देखकर भाशीर्वाद दिया व उनके पिताको शिक्षा दी कि यह एक महात्मा है, इसको शास्त्रज्ञान व विद्या भळेप्रकार पढ़ाई जावे । वहांसे चलकर टोंक राज्यके सेमरखेड़ी (वासौदा स्टेशनसे सिरोंज होकर ) स्थानके पास ग्राममें बसे । वहां एक बनान्य जैन सेठकी सहायतासे व्यापार करने लगे और पुत्रको विद्या पढ़ाने कगे। यह बड़े चतुर थे । यथायोग्य विधा लेते हुए जैन शास्त्रोंका स्वाध्याय करने कगे । इनको छोटी वयसे ही वैराग्य होगया । ऐसा मालूम होता है कि इन्होंने विवाह नहीं कराया, बहुत काल तक घरमें हो श्रावक व्रत पाळते रहे और सेमरखेड़ी में (जहां अब जंगल है व नशियां बनी है) एकांतमें बैठ ध्यान लगाते रहे। कुछ काल पीछे इन्होंने घर त्याग दिया तब या तो ब्रह्मचारी रहे या मुनि होगये । तथा मल्हारगढ़ (ग्वालियर स्टेट मुंगावली स्टेशनसे तीनकोस ) में ठहरकर अधिक ध्यानका अभ्यास करने लगे। और उन्होंने यत्रतत्र विहारकर अपने मध्यात्म गर्भित उपदेशसे जैनधर्मका प्रचार किया। ऐसा कहते हैं कि उनके उपदेशसे ५५३३१९ जनोंने जैनधर्म ग्रहण किया । ये हरएकको जैनी बनाते थे। इनके शिष्य कई प्रसिद्ध हैं लक्ष्मण पांडे, चिदानन्द चौधरी, परमानन्द विलासी, सुस्पसाह तेली, लुकमानशाह मुसलमान । इन्होंने मल्हारगढ़से वि. सं. १५७२ ज्येष्ठ वदी ६ शुक्रवारको समाधिमरण करके सुगति घाम प्राप्त किया। उस समय सन् १५१५ था, दिहकीमें सिकन्दर लोधीका राज्य था जो १४८९ पर गद्दीपर बैठे थे। सुलतान वहलोल लोधीसे गढ़ासाहकी नहीं बनी होगी ऐसा झळकता इनके उपदेशके अनुयायी तारणतरण समाज कहलाते हैं। वर्तमान में इस समान
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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