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भूमिका
भूमिका
वालों पर मिरमापुर, बांदा, मध्यप्रांत, मध्य भारतमें फैले हुए करीब २... होंगे व १.... मानव होंगे। ये चैत्यालयके
नामसे सरस्वती भवन बनाते हैं, वेदीपर शास्त्र विराजमान करते हैं, शासकी भक्ति करते हैं, शास्त्रके सामने जिनेन्द्रदेवकी भी ॐ भक्ति करते हैं । दिगम्बर जैन शास्त्रोंको पढ़ते हैं व बिराजमान करते हैं । जिनेन्द्र प्रतिमाके रखनेका व पूजने का रिवाज नहीं है
तथापि ये लोग तीर्थयात्रा करते हैं। मंदिरोंमें यत्रतत्र प्रतिमाओंके दर्शन करते हैं। तारणतरण स्वामी रचित जो शास्त्र हैं उनमें भी प्रतिमाका खण्डन नहीं है।
मालूम होता है उन्होंने उस समयकी परिस्थितिको देखते हुए प्रतिमा स्थापनको गौण कर दिया था। वह मुसलमानी समय था, मूर्ति खण्डनका जगह २ उपदेश होता था। कोगोंको मुसलमानी धर्ममें जानेसे बचानेके किये उप्त समय ऐसा किया होगा।
उस समय महमदाबादमें श्वेतांबर जैनियोंके भीतर एक लोकाशाह हुए थे जिन्होंने भी वि० सं० १५०८ में हूँढ़ियापंथको स्थापना की थी। ये भी मूर्तिको नहीं पूजते हैं । सिखधर्मके स्थापक नानक पंजाबमें सन् १४६९ से १५३• तक हुए व कबीर ४ शाह भी इसी समय सन् १४४६ से १५०८ में हुए हैं। इन सबोंने मूर्ति पूजाको गौण किया था । तारणस्वामीका स्वर्गवास सन् १५१५ में हुमा था।
पाठकगण देखेंगे कि लोकाशाह, कबीर, नानक, तारणस्वामी करीब २ समकालीन हुए हैं। भारतकी दशा उस समय मच्छी नहीं थी। मुसलमानी धर्म जोर जुलमसे फैलाया जाता था। जब ये धर्मप्रचारक हुए तब सिकन्दर लोधीका राज्य था। इसके सम्बन्ध विसेन्ट स्मिथ इतिहासकार लिखते हैं कि
"He enterely ruined the shrines of Mathura, converting the buildings to Muslim use & y generally was extremely hostile to Hindism."
. इसने मथुराके मंदिरोंका विध्वंस किया । मकानोंको मुसलमानी बना लिया । यह हिंदूधर्मका कट्टर शत्रु था । मूर्ति पूनाका घोर विरोध किया जाता था। हिंदुओंको कोभसे या भयसे मुसलमान बनाया जाता था। ऐसे समयमें ही गढ़ासाह भागकर मालवाकी तरफ माए। संभव है अपने धर्मकी रक्षार्थ ही भाए होंगे। उनके विचारशीक पुत्रको यह बात खटकी होगी तब तारणतरणने दिगम्बर जैनधर्मकी रक्षार्थ वही काम किया जो लोकाशाहने श्वेतांवर धर्मकी व नानक व कबीरशाहने हिंदु धर्मकी रक्षार्थ किया । अवसर पाकर मूर्तिपूमाको गौण कर शास्त्रपूजा व गुरुपूनाको मुख्यता की। इससे साफ झलकता है कि तारणतरण स्वामी बड़े ही प्रभावशाली बक्का व अपने समयके अध्यात्म रसिक अन महात्मा होंगे, जिन्होंने मुसलमान होनेवाले जैनियों को रक्षित किया तथा स्वयं मुसकमानों तकको जैनधर्ममें दीक्षित किया । इनकी ग्रंथ रचनामें मात्मानुभवकी स्थानर पर प्रेरणा है।
वारणतरणस्वामी रचित १४ ग्रंथ प्रसिद्ध । उनका विवरण नीचे प्रकार है
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