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वारणतरण
श्रावधान
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ही प्रकारके रिजुमति, विपुलमति मन:पर्यय ज्ञानका प्रकाश कर लेते हैं और वही साधु सर्व ज्ञानावरणीय कर्मका क्षय करके केवल ज्ञानको जगा लेते हैं। ऐसे ही परम साधु गणधर देवादि
आचार्यों के द्वारा उत्तम पात्र कहे गए हैं। उत्तम पात्र साधुओं के भी तीन भेद हैं-उत्तम, मध्यम, जघन्य । जो तीर्थकर भगवान साघु अवस्थामें हैं वे उत्तममें उत्तम हैं। जो ऋद्धिधारी साधुसे लेकर चार ज्ञानके धारी तक हैं वे उत्तममें मध्यम पात्र हैं। जो इसके सिवाय मात्र साधन करनेवाले, निश्चय आत्मानन्दके विलासी परमात्मतत्वके रमणकर्ता हैं वे उत्तममें जघन्य हैं। इन उत्तम पात्रोंको गृहस्थोंके द्वारा दान दिया जाना मोक्षप्राप्तिमें उनके लिये परम सहायक है। साधुगण न स्वयं भोजनपानका प्रबन्ध करते न कराते हैं न ऐसी भावना भी करते हैं कि कोई हमारे लिये प्रबन्ध करें। वे उस आहारको भी नहीं लेते हैं जो किसीने मुनिको देनेके निमित्त ही बनाया हो। इसमें उद्दिष्टका दोष
है। गृहस्थने जो अपने लिये बनाया हो उसीमेंसे भक्तिपूर्वक दिये हुए आहारको जो लेते हैं वे नहीं ४ चाहते कि उनके निमित्तसे कोई आरम्भ हो। क्योंकि आरम्भमें हिंसा थोडी बहुत अवश्य होती
है। वे स्वनिमित्त हिंसा कराकर अहिंसा व्रतमें कमी करना नहीं चाहते हैं। इसीलिये विना संकेत किये भिक्षारूप कहीं भी निकल जाते हैं। वहां गृहस्थने यदि भक्तिपूर्वक लेजाकर कुछ भाग हाथों में रख दिया तो उसे भी बडे ही संतोष व समताभावसे लेकर संयमकी रक्षा विचार कर धर्म भावनामें निरत रहते हैं । मूलाचार अनगार भावनामें कहा है
गवि ते अभित्थुगंति य पिंडत्थं ण वि य किंचि नायति । मोणबदेण मुणिणो चरंति मिक्खं अभासंता ॥ १॥
भावार्थ-मुनि महाराज न तो भोजनके लिये किसीकी स्तुति करते हैं न याचना करते हैं। मौनव्रतसे भिक्षाको जाते हैं, विना बोले हुए जो शुद्ध मिल गया उसे ही लेलेते हैं। यदि लाभ नहीं हुआ तो लौट आते हैं। और भी लिखा है
पयणं व पायणं वा ण करेंति अ णेव ते करावेति । पयणारंभणियत्ता संतुट्ठां भिक्खमेतेण ॥ ५ ॥
भावार्थ-वे साधु न स्वयं भोजन पचाते हैं न पचन कराते हैं, वे भोजन क्रियाके आरम्भसे विरक्त हैं, भिक्षामात्रसे संतोषी रहते हैं। ऐसे संतोषी साधुओंको भिक्षा देना परम धर्मकी रक्षा करना है, साधुओंको मोक्ष पहुंचानेका साधन करदेना है। इसलिए दातार गृहस्थ बड़ा भारी धर्मका
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