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________________ मो.मा. प्रकाश 1 मोहकर्मका उदय होय अर जब असातावेदनीयका निपजाया बाह्यकारन मिले तब दुःखमाननेरूप मोहकर्मका उदय होय । बहुरि एक ही कारन काहूकों सुखका, काहूकों दुःखका कारन हो है । जैसे काढूकै सतावेदनीयका उदय होतें मिल्या जैसा वस्त्र, सुखका कारन हो है तैसा ही वस्त्र काहूक असातावेदनीयका उदय होतें मिल्या सो दुःखका कारन हो है । तातै बाह्यवस्तु सुखदुःखका निमित्तमात्र ही है । सुख दुःख हो है सो मोहके निमित्ततें हो है । निर्मोही मुनिनिकै अनेक ऋद्धियादि परीसहादि कारन मिलें तौ भी सुख दुःख न उपजै । मोही जीव के कारन मिले वा विनाकारन मिले भी अपने संकल्पहीतें सुखदुःख हुवा ही करै है । तहां भी तीव्रमोहीकै जिस कारनकौं मिले तीव्र सुखदुःख होय तिसही कारनकौं मिलें मन्दमोही कै मन्द सुखःदुख होय । तातें सुखदुःखका मूल बलवान कारन मोहका उदय है । अन्यवस्तु हैं सो बलवान कारन नाहीं । परन्तु अन्यवस्तुकै र मोही जीवकै परिणामनिके निमित्तनैमित्तिककी मुख्यता पाइए है। ताकरि मोहीजीव अन्य बस्तुहीक सुखदुखका कारन माने है । ऐसें वेदनीयकरि सुखदुःखका कारन निपजै है बहुरि आयुकर्मके उदयकरि मनुष्यादिपर्यायनि की स्थिति रहै है । यावत् प्रयुका उदय रहे तावत् अनेक रोगादिक कारन मिलौ शरीरसौं संबंध न छूटै । बहुरि जब आयुका उदय न होय तब अनेक उपाय किए भी शरीरसौं संबंध रहै नाहीं, तिसहीकाल आत्मा र शरीर जुदा होय । इस संसारविषै जन्म जीवन मरनका 2007-0-0-300 ६३
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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