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मो.मा.
प्रकाश
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का क्षयोपशमतें किंचिन्मात्र चाह्या भी हो है । चाहिये तो बहुत है परंतु किंचिन्मात्र चाह्या हुआ होय है। बहुत दान देना चाहै है, परन्तु थोड़ा ही दान देय सके है। बहुत लाभ चाहै है परन्तु थोड़ाही लाभ हो है। ज्ञाचादिक शक्ति प्रगट हो है तहां भी अनेक बाह्य कारन चाहिए। या प्रकार घातिकर्मनिके उदयतें जीवकै अवस्था हो है। बहुरि अघातिकर्मनिविषै वेदनीयके उदयकरि शरीरवि बाह्य सुख दुःखका कारन निपजै है। शरीरविषै आरोग्यपनौ रोगीपनौ शक्तिवानपनौ दुर्बलपनौ इत्यादि अर क्षुधा तृषा रोग खेद पीड़ा इत्यादि सुख दुःखनिके कारन हो हैं । वहुरि बाह्यविषै सुहावना ऋतु पवनादिक वा इष्टस्त्री पुत्रादिक वा मित्र धनादिक, असुहावना ऋतु पवनादिक वा अनिष्टस्त्रीपुत्रादिक वा शत्रु दरिद्र बध-बन्धनादिक सुखदुःखके कारन हो हैं। ए बाह्यकारन कहे तिनिविषै केई कारन तो ऐसे हैं जिनिके निमि
तसौं शरीरकी अवस्था ही सुखदुःखकों कारन हो है अर वै ही सुखदुःखकों कारण हो हैं। | बहुरि केई कारन ऐसे हैं जे आप ही सुखदुःखकौं कारन हो हैं ऐसे कारनका मिलना वेदनीय के उदयतें हो है। तहां सातवेदनीयतें सुखके कारन हो हैं अर असातावेदनीयतें दुखके कारन मिलें । सो यहां ऐसा जानना-ए कारन ही तो सुखदुःखकों उपजावै नाहीं, आत्मा मोहकर्म | का उदयतें आप सुखदुःख माने है। तहां वेदनीयकर्मका उदयकै अर मोहकर्मका उदयकै ऐसा ही संबंध है। जब सातावेदनीयका निपजाया बाह्य कारन मिलै तव तौ सुखमाननेरूप