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________________ मो.मा. प्रकाश ताकी घृणा करै है वाका वियोग चाहै है । ऐसें ए हास्यादिक छह जानने । बहुरि वेदके उद| यतें याकै कामपरिणाम हो है तहां स्त्रीवेदके उदयकरि पुरुषसौं रमनेकी इच्छा हो है पुरुषवेद के उदयकरि स्त्रीसौं रमनेकी इच्छा हो है नपुन्सकवेदके उदयकरि युगपत् दोऊनिसौं रमनेकी इच्छा हो है ऐसे ए नव तौ नो कषाय हैं। क्रोधादिसारिखे बलवान ए नाहीं तातें इनौं । | ईषत्कषाय कहें हैं। यहां नोशब्द ईषत्वाचक जानना । इनिका उदय तिनि क्रोधादिकनिकी साथि यथासंभव हो है। ऐसे मोहके उदयतें मिथ्यात्व वा कषायभाव हो हैं सो एही संसारके | मूल हैं । इनिहीकरि वर्तमानकालविषै जीव दुखी है अर अगामी कर्मबन्धनके भी कारन एही। | हैं । बहुरि इनहीका नाम राग द्वेष मोह है। तहां मिथ्यात्वका नाम मोह है जातें तहां साबधानीका अभाव है। बहुरि मायालोभकषाय अर हास्य रति तीन वेदनिका नाम राग है। जातें तहां इष्टबुद्धिकरि अनुराम पाइए है । बहुरि क्रोधमानकषाय अर अरति शोक भय जुगुप्सानिका नाम द्वेष है जातें तहां अनिष्टबुद्धिकरि द्वेष पाइए है। बहुरि सामान्यपनै सबहीका नाम मोह है। जातें इनिविषै सर्वत्र असावधानी पाइए है । बहुरि अन्तरायके उदयतें जीव | चाहै सो न होय । दान दिया चाहै देय न सके। वस्तुकी प्राप्ति चाहै सो न होय । भोग किया चाहै सो न होय । उपभोग किया चाहै सो न होय। अपनी ज्ञानादि शक्तिकौं प्रगट किया चाहै सो प्रगट न होय-ऐसें अन्तरायके उदयतें चाहै सो होय नाहीं । बहुरि तिसही
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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