SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वारणतरण ॥१२०॥ D प्रचुरदोषकरीमिह वारुणीं पिबति यः परिगृद्ध धनेन ताम् । असुहरं विषम्यमसौ स्फुटं पिबति मूढमतिर्नननिन्द्रितम् ॥ ११६ ॥ प्रचुरदोषकरीं मदिरामिति द्वितयजन्मविवाधविचक्षणम् । निखिल तस्वविवेच कमानसाः परिहरन्ति सदा गुणिनो जनाः || १९२ ॥ भावार्थ — जो कोई धन खरचकर महान दोषकारी मदिराको पीते हैं वे मूढमति अति निन्दित भयानक प्राणहारी विषका ही पान करते हैं । यह मदिरा इस जन्मको और परभवको दोनोंका बिगाड करनेवाली है । तत्वके विचार में चतुर गुणीजन इससे सदा ही बचते हैं। मदिराके पीनेकी आदत से गरीब आदमी अपनी कमाई इसीमें खो देता है। कुटुम्बके लिये भोजन वस्त्रका भी प्रबन्ध नहीं होने पाता है। मदिरा पीनेवाला बहुतसे राज्यदंड योग्य पाप कर लेता है । उसके शरीर में रोग भी अनेक प्रकारके होजाते हैं । मदिराका व्यसन बहुत ही बुरा है । जो विवेकी श्रावक है उनको मदिरा के सिवाय और भी कोई वस्तु जो मनको मूढ बनाई, नशा पैदा करदे, कभी न लेनी चाहिये जैसे- गांजा, चरश, भंग, तम्बाकू, अफीम आदि । कोई भी नशा बुद्धिको विपरीत कर देता है व उसका खुमार जबतक जोर से चढ़ा रहता है तबतक यह प्राणी अपने जीवनका समय वृथा खोता है । जो कोई वृक्षकी पत्ती आदि हो व जिसमें हिंसा न हो वह वस्तु किसी औषधके काम में तो ली जासक्ती है परंतु मद्य के रूपमें कभी न ग्रहण करना चाहिये । मदिराका सेवन तो औषधिमें भी लेना उचित नहीं है । क्योंकि यह प्राणियों के बहुघात से तैयार होती है। जिन औषधियों में मदिरा पडी हो, विचारवानको पीना योग्य नहीं है । पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें कहते हैं I मद्यं मोहयति मनो मोहितचित्तस्तु विस्मरति धर्मं । विस्मृतधर्मा जीवो हिंसामविशंकमाचरति ॥ ६२ ॥ I भावार्थ - मद्य मनको मोहित कर देती है, मोही चित्त धर्मको भूल जाता है । धर्मको भूला हुआ जीव निडर होकर हिंसा करने लगता है, अपना व परका घात व कष्ट प्रदान करने लगता है। यहां ग्रन्थकर्ता भीतरी घनादिके मग्रकी तरफ लक्ष्य देकर लिखा है कि जिसके तीव्र ममत्व संसारसे है वह भी मद्य पीनेवाला है । वह यदि राज्य करता हुआ हो तो घोर अभिमानमें होकर यही विचारता रहता है कि मैं राज्य आरूढ हूं, यदि राज्य नहीं हुआ तो राज्य स्वामी होकर अभिमान करूं, खूब स्वार्थ सिद्ध करूं, ऐसा विचारता रहता है । मदिरा पीनेवालेकी जैसे भाषा बिगडी हुई निकलती है वैसे घनादिके नशेमें चूर प्राणीकी भाषा मानसे भरी हुई कठोर निकलती है। वह श्रावकाचार ॥ १२० ॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy