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बारणतरण
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सवको छोटी दृष्टिसे देखकर निरादरके वचन कहता है । धनके मदमें प्राणी धनका ही संचय करता ४ रहता है। उसे धनका नशा चढ़ जाता है। जितना धन होता है उतना अधिक मद होता है। वह ४ धनको शुभ कार्यमें नहीं लगाता। मात्र मैं बडा हूं इस भावकी ही पूजा करने में लगा रहता है।
श्लोक-अनृतं सत्यभावं च, कार्याकार्यं न सूच्यते ।
ये नरा मद्यपा होंति, संसारे भ्रमणं सदा ॥ ११४ ॥ अन्वयार्थ-(ये नरा) जो मानव ( मद्यपा) मदिरा पीनेवाले होते हैं या धनादिका मद करते हैं वे ( अनृतं सत्यभावं) झूठ व सत्य पदार्थको (च) और (कार्याकार्य) कर्तव्य व अकर्तव्यको (न मुच्यते ) * नहीं देखते हैं (संसारे ) इस संसारमें (सदा ) हमेशा ( भ्रमण ) उनका भ्रमण होगा।
विशेषार्थ-जो मानव मदिरा पीते हैं या मदमें गृसित हैं उनकी विवेकबुद्धि नष्ट होजाती है, वे ॐ सत्य व जूठ की परीक्षा नहीं कर सके हैं न यह विचारते हैं कि क्या काम करना चाहिये व क्या काम
न करना चाहिये । वे स्वार्थके अंधे होकर धर्मको छोड बैठते हैं। अपना धनादि बढानेके लिये असत्य बोलते हैं, मायाचार रचते हैं, दूसरों को ठगते हैं, अन्यायसे धन एकत्र करते हैं, अंध हो विषयभोगोंमें धन खरचते हैं, नामवरीके भूखे रहते हैं, दूसरेसे इर्षा करके प्रचुर धन खरच करके भीतर
धन रहित होते हुए भी अपना नाम करना चाहते हैं-जिन कुरीतियोंसे या व्यर्थ पयसे अपना बुरा ४ या समाजका बुरा होता है उनको अभिमानवश नहीं छोड़ते हैं। हम अपने बड़ोंकी रीतिपर चलेंगे
नहींतो हम छोटे होजायंगे । धन, धर्म, सुयशका नाश करके भी अंध हो व्धर्थके काम किया करते हैं। इन कठोर चित्सवालोंके भीतर दया नहीं रहती है। वे रौद्रध्यानी हो जाते हैं, नर्क आय बांधकर नर्क जाते हैं फिर संसारमें अनेक पशु आदिके दीन हीन जन्म पापाकर भ्रपते रहते हैं, धर्मालका
मिलना कठिन होजाता है इसलिय विचारवानको न तो कोई नशा पीना चाहिये और न धनादिका & मद करना चाहिये । वे सर्व पदार्थ अनित्य हैं ऐसी भर चाहिये।
श्लोक-जिन उक्तं न श्रद्धते, मिथ्यारागादि भावनं ।
अनृतं ऋत जोनाति, ममत्त्वं मानभूतयं ॥११५॥
॥१९॥