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श्रावकाचार
वारणतरण
अन्वयार्थ-मद्यमें फंसा हुआ अभिमानी पुरुष (मिन उक्त) जिनेन्द्र के कहे हुए उपदेशका (न श्रद्धते)
श्रद्धान नहीं करता है (मिथ्यारागादि भावनं) मिथ्यात्व व राग देषकी भावना सदा किया करता है। ॥१२॥
( अनृतं ) जो झूठ है कल्पित है उसे (ऋत) सच्चा (जानाति) जान लेता है ( ममत्वं ) ममता व (मान) अभिमानका (भूतयं) भूत उसपर चढ़ा रहता है।
विशेषार्थ-जैसे मदिरा पीनेवाला मदके नशे में चूर होकर अपनी सुधबुध भुलकर पशुसे भी बुरा होजाता है वैसे ममता और मानका भूत जिसपर चढ़ जाता है ऐसा मोही प्राणी जिनेंद्र के उपदेशको 5 एकतो सुनता नहीं है । यदि सुनता है तो ग्रहण नहीं करता है। यदि ग्रहण भी करता है तो इसपर विचार नहीं करता है और न उसपर अपना अडान जमाता है। मिथ्यात्वमें फँसा हुआ, संसारासत बना हुआ, कुदेवादिकी भक्ति किया करता है, रागद्वेष करता हुआ किसीसे अति प्रेम व किसीसे
अति देष कर लेता है। कषायकी पुष्टिमें लगा रहता है। जिसपर द्वेष होजाता है उसका सत्यानाश ४ करता है, जिससे प्रेम होजाता है उसके लिये धन लुटा देता है। वह अंधा होकर कुमार्गमें
चलता है। जो बात सच्ची है, कल्याणकारी है उसे तो झूठ जानता है और जो झूठी है उसे सच्ची समझ लेता है। यह संसार असार है, दुःखका घर है । यह शरीर अपवित्र है, क्षणभंगुर है। ये भोग तुष्णावईक अतृप्तिकारी हैं। ये कुटुम्बादि सब स्वारथके सगे हैं ऐसा वस्तु स्वरूप होनेपर भी यह मूढ प्राणी संसारको सुखकारी, शरीरको सदा बने रहनेवाला, भोगोंको तृप्ति देनेवाला, कुटुम्बादिको
अपने सहाई व उपकारी समझ लेता है। इस तरह उल्टा मानके यह पदार्थको संचय करते हुए मान Vव मोहमें फंसता हुआ अपनेको और अधिक अंगवुद्धिके जाल में फंसा लेता है । धिक्कार हो मदि
राको। धिकार होधनादिके मदको। दोनों ही इस लोक व परलोक बिगाडनेवाले हैं,ज्ञानीको कभी भी अभिमानके नशेमे चूर न होना चाहिये।
श्लोक-शुद्ध तत्त्वं न वेदंते, अशुद्धं शुद्ध गीयते ।
मद्य ममताभावेन, मयदो तथा बुधः॥ ११६ ॥ अन्वयार्थ-जो कोई (शुद्ध तत्तं) शुद्ध आत्मतत्तको (न वेदंते) नहीं अनुभा करता है किंतु ४ (अशुद्ध) रागादि सहित अशुद्ध आत्माको (शुद्ध गीयते) शुद्ध है ऐसा गाता है वह प्राणी (मधे)