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मथके समान संसारमें (ममताभावेन) ममताभाव रूपसे वर्त रहा है। (तथा बुदैः) तैसे ही वद्धिवारणवरण
श्रावकाचार मानोंके द्वारा (मयदोष) मदिराका दोष कहा गया है। ॥११॥
विशेषार्थ-यहांपर यह बताया है कि जो कोई निश्चय नयके द्वारा अपने आत्माको शुद्ध रागादि रहित जानकरके एकांती होजावे अर्थात् वर्तमान में पर्याय अपेक्षा आत्माके कर्म बंध हैं, उसके राग द्वेष है, पुण्य या पापके फलका भोग है, इस वातको न मानता हो और अपने ही अशुद्ध आत्माको शुद्ध है ऐसा गाता हो, किन्तु रागादि छोडकर एकाग्र होकर आत्मध्यान करके शख आत्माको कभी अनुभवमें न लेता हो, व्यवहारमें रात दिन फंसा रहकर संसारी कार्यों में लिप्त रहे और यह माने कि इन कार्यो से मुझे बंध नहीं होता है-मात्र शुष्कज्ञान जो वास्त. वमें एकांत है मिथ्यात्व है संतोष मान लेता है। आत्माकी शुद्धिका यल नहीं करता है वह निश्च पाभासी एकांती मिथ्यात्वी है। उसे भी एक प्रकारका मद चढ़ गया है। मैं परमात्मा रूप हूं इस मदमें लीन होकर मन, वचन, कायको स्वच्छंद वर्ताना है, प्रमादी होरहा है, भ्रममें पड़कर अशुद्धको शुद्ध मान रहा है। वास्तवमें दृष्टि दो है-एक द्रव्यदृष्टि, एक पर्याय दृष्टि । द्रव्य हष्टिले या द्रव्याधिक नयसे द्रव्यका असली स्वरूप जाना जाता है, पर्यायाधिक जयसे उसकी अवस्थाओंका ज्ञान होता है। अपने आत्माको दोनों नयास ठीकर जाने तब सम्यग्ज्ञान होगा कि यह द्रव्य स्वभावसे तो शुद्ध
है परन्तु अनादि कर्म बंधकी अपेक्षा यह अशुद्ध है। इसमें राग द्वेष मोह हैं इसको मेटकर धीतराग र परिणति करनी है। ऐसा जो जानेगा वह अपनी अशुद्धता मेटने के लिये आत्मध्यानका साधन
करेगा, अशुभ भावोंसे बचेगा, शुद्ध भावों में रमेगा। जब शुद्ध भावों में न रमा जायगा तब शुभ भावों में रहनेका सहारा लेगा। इसतरह जो साधन करेगा वही समझदार सम्बाहटी है उतीकोही मिथ्यात्वका नशा नहीं है। परंतु जो एक पक्ष पकडकर सर्व साधन छोड़ बैठेगा वह मनवाले
समान अपने आपका बुरा करेगा । जैसे मिथ्यात्व मदका गृसित पाणी सबको वास्तविक न जानकर है औरका और जानता है वैसे ही मदिराका पीनेवाला वस्तुको औरका और जानकर दुःख उठाता है।
निश्चयका एकांत पकडनेवाला भी मतवाला है, वैसे ही व्यवहारधर्मका एकांत पकडनेवाला ॐ भी मतवाला है। दोनों ही भवमें इषते हैं। ऐसा ही समयसारकलशामें अमृतचंद्राचार्य कहते हैं-V॥१९॥