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________________ धारणतरण ॥११४॥ ममाः कर्मनयावलम्बनपरा ज्ञानं न जानन्ति यन्मग्ना ज्ञाननयोषणोऽपि यदति स्वच्छन्द मन्दोद्यमाः ॥ विश्वस्योपरि ते तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं । ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यांति प्रमादस्य च ॥ १२-४ ॥ भावार्थ — जो मात्र क्रियाकांडके पक्षका ही आलम्बन लेते हुए आत्मज्ञानको नहीं अनुभव करते हैं वे संसार में डूबते हैं तथा जो ज्ञानको चाहते हुए भी आत्मानुभव के लिये अत्यन्त मंद उद्यमी हैं व स्वच्छन्द व्यवहार में प्रवर्तते हैं वे भी संसार में डूबते हैं। वे ही इस संसार से पार होसकेंगे जो आत्माका यथार्थ ज्ञान स्वयं रखते हुए कदाचित् क्रियाकांड में लीन न होते हुए प्रमाद के वश नहीं होते हैं- सदा आत्मानुभव के उत्साही रहते हैं । प्रयोजन यह है कि जैसे मदिरा पीना छोड़ना चाहिये वैसे एकांत मिथ्यात्वकी मदिराको भी त्यागना चाहिये । श्लोक – जिनोकं शुद्धतत्वार्थं, न साधयन्त्यव्रतीत्रती । अज्ञानी मिथ्याममत्त्वस्य, मद्ये आरूढते सदा ॥ ११७ ॥ अन्वयार्थ -- ( अव्रती ) व्रत रहित हों या ( व्रती ) व्रतधारी हों जो ( निनोक्तं ) जिनेन्द्र भगवानके कहे हुए (शुद्धतत्वार्थ ) शुद्ध आत्म पदार्थको ( न साधयन्ति ) नहीं साधन करते हैं वे ( अज्ञानी ) ज्ञान रहित हैं और (सदा ) सदा ही (मिथ्याममत्त्वस्य ) मिध्यात्वकी ममतारूपी ( मद्ये ) मदमें ( आरूढ़ते ) आरूढ़ हैं । विशेषार्थ —— यहां यह बताया है कि कोई व्यवहार सम्पक्तको रखता हुआ सवे देव, शास्त्र गुरुको मानता हुआ, सात तत्वोंका श्रद्धान रखता हुआ व्रत रहित हो अथवा श्रावक या मुनिके व्रत रहित हो और शुद्ध आत्माके असली स्वरूपको पहचानता हो और न कभी शुद्धात्माका ध्यान करता हो न शुद्धात्माकी भावना भाता हो और अपनेको यह माने कि मैं सम्पती हूँ, मैं चौथे अविरत सम्यग्दर्शन गुणस्थानका धारी हूँ या मैं पंचम गुणस्थानका धारी श्रावक हूँ या मैं छठे, सातवें गुणस्थानका धारी मुनि हूं तो वह शुद्ध आत्माको अनुभव न करनेसे मिथ्याज्ञानी ही है। उसने व्यवहारको ही निश्चय मोक्षमार्ग मान लिया है। बंध कार्यको ही निर्वाणका मार्ग निश्चय कर लिया है । इसलिये वह मिथ्यास्य सहित है, परन्तु उसको यह नशा चढा है कि मैं सम्पती हूं, मैं मोक्षमार्गी हूं, ऐसा अज्ञानी भी सदा मदिरा पीनेवालेके समान ही उन्मत्त है, असत्यको सत्य जानता हुआ उन्मत्तवत् चेष्टा कर रहा है। व ॥११४॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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