SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वारणतरण श्लोक-वेश्या आसक्त आरक्ता, कुज्ञानं रमते सदा । नरयं यस्य सद्भावं, वेश्या तद्भावदिष्टितं ॥ ११८ ॥ अन्वयार्थ-(वेश्या आसक्त) जो वेश्याके व्यसनमें (बारक्तः ) लवलीन है वह (सदा) सदा (कुज्ञान) मिथ्या ज्ञानमें (स्मते) रंजायमान होता है। (यस्य) जिसको (नरयं) नरककी (सद्भाव) प्राप्ति होगी (वेश्या) वेश्या ( तद्भाव ) उसी नरक सम्बन्धी भावमें लीन (दिष्टितं ) दिखलाई पड़ती है। विशेषार्थ-यहां वेश्या व्यसनको कहते हैं। जो अज्ञानी विषय-लम्पटी, कामी, वेश्यासेवनकी महान खोटी आसकतामें फंस जाता है वह हमेशा मिथ्या सुखमें सुख जानकर भूलता है। वेश्याकी प्रीति पैसे से होती है, जैसे नारकी अपनीनरककी अवस्थामें रमते नहीं, प्रेम नहीं करते हैं वैसे वेश्या मात्र द्रव्यका लोभरखती है, उस द्रव्यदाता पुरुषमें प्रेम नहीं रखती है। यह समझता है कि वेश्या प्रेम करती है इसी धोखेमें यह वेश्यालम्पटी प्रचुर धन ला लाकर वेश्याको सौंप देता है। जब धन रहित होजाता है तब वेश्या तुरत निकाल देती है फिर बात भी नहीं करती है। यह मूर्ख वेश्याके जालमें फंसकर उ नष्ट होजाता है । वेश्याका अँग महान अशुचि स्पर्शने योग्य नहीं होता है। क्योंकि वह मांसाहारी, मद्यपायी, दुराचारी आदि पुरुषोंके साथ अधिक रमण करती है। वेश्याके अँगमें अनेक, रोग भी पैदा होजाते हैं। वे रोग वेश्या प्रसंग करनेवालेके पीछे लग जाते हैं। जो वेश्या व्यसनका मोही होजाता है वह धर्म प्रीति, गृहस्थ प्रीति, लौकिक-पुरुषार्थ-साधन प्रीतिको गमा बैठता है। अपने जीवनको बेकार बना लेता है। वेश्याके पास कभी आना जाना भी व संगति भी नहीं करनी चाहिये । उसकी दृष्टि सदा धन लूटनेकी व अपने मोहमें फंसानेकी रहती है। यह व्यसन भी वेश्या लम्पटीको मांस, मद्य, परस्त्री, चोरी आदि व्यसनों में फंसा देता है। तीन लोभ जनित कृष्णादि लेश्याके वशीभूत हो वह प्राणी नरक आयु बांध लेता है और महान दुःखोंसे पूर्ण नर्क धरामें चला जाता है। सुभाषितरत्नसंदोहमें कहते हैं तावदेव पुरुषो जनमान्यस्तावदाश्रवति चारुगुणश्रीः । तावदामनति धर्मवासि यावदेति न वशं गणिकायाः ॥ ६.८॥ मन्यते न धनसौख्यविनाशं नाभ्युपैति गुरुसज्जनवाक्यं । नेक्षते भवसमुद्रमपारं दारिकार्पितमना गतबुद्धिः ॥ ६.९॥ ॥१२॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy