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श्रावकाचार
भावार्थ-संधान तीन प्रकारका होता है। अथाणा, संधान, मथान । जिसमें राई, लोण, आम, तारणतरण
नींबू व तेल डालकर बनाते हैं सो अधाना है। इनमें त्रस जीव पैदा होते हैं, नहीं खाना योग्य है। ॥११९॥
नीबू व आम आदिको लूणमें डालकर संधाना बनता है। जलेबी व राब आदि जिसमें खमीर उठे सो मथाणा है। इन तीनोंको खाना उचित नहीं है। कहीं २ अग्निसे पके हुए आचार व मुरबेको
२४ घण्टे व कहीं कहीं १२ घण्टे के भीतर खाना योग्य है ऐसा कहा जाता है। * किसी भी फल को तोडकर खाना उचित है, क्योंकि उसके भीतर बस जंतु पैदा होनेकी संभाY वना है। चने, बादाम, सुपारी, जामफल, आम आदिके भीतर कभी २ कीडा निकल पडता है। से अच्छी तरहसे देखे विना कोई फल नहीं खाना चाहिये। जो विना देखे खाते पीते हैं वे हिंसाकी
परवाह नहीं करते हैं। वे हिंलामें आनन्द मानते हैं उनको मांसका दोष आता है। प्रयोजन यह है कि जिस चीजमें सन्मूर्छन त्रस जीवोंकी उत्पत्ति होगई हो व होने की संभावना हो उस वस्तुको दयावान मांसाहार त्यागीको नहीं खाना चाहिये। शुद्ध रसोई खानपान करनेसे ही श्रावक यथार्थमें मांसके सर्व दोषोंसे बच सक्ता है।
श्लोक-मये ममता भावेन, राज्यं आरूढ चिंतनं ।
भाषाशुद्धि न जानाति, मये वित्तस्य संचितं ॥ ११३ ॥ अन्वयार्थ (मये) मद्य व्यसनके भीतर ( ममताभावेन ) ममताभावके द्वारा (राज्यं आरुढ़ ) मैं राज्य कर रहा हूं ऐसा (चिंतनं ) विचार होता है (भाषाशुद्धि) भाषाकी शुद्धि (न जानाति ) नहीं जानता है। (मद्ये) मद्यमें (वित्तस्य ) धनका ( संचितं) संचय किया जाता है।
विशेषार्थ—पहां तीसरे व्यसनका स्वरूप है। मदिरा पीना प्राणीको अचेत कर देता है। वह हित अहितको भूल जाता है, मदिरा अनेक जंतुओंके घातसे सडाकर बनती है, स्पर्श योग्य नहीं है, यह उदर में जाकर अंग उपांगको आकुलव्याकुल कर देती है, तब मुढ प्राणी अपनी पुत्री तकको स्त्री मानके कुचेष्टा करने लग जाता है, यद्वा तदा पकता है, अधिक नशा चढा तो बेहोश हो पड़ जाता है। रास्तेमें मोरियों में पड़ जाता है, मानवको बावला अज्ञानी बनानेवाली यह मदिरा किसी भी तरह पीने योग्य नहीं है। सुभाषित रत्नसं होहमें कहा है