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श्रावयापार
- अन्वयार्थ (विदलं) दो दाल जिसकी हो ऐसेका दहीके साथ खाना (संधानबंधानं ) भचार मुरब्बा * बना हुआ (मस्य ) जिस किसीके (अनुरागं ) इनका राग (गीयते) पाया जावे ( मनस्य भावनं कृत्वा ) उसके
मनसे मासकी भावना की गई होनेसे (तस्य ) उसके (मांस) मांस (न मुच्यते) नहीं छोडा गया है
(संपूर्ण फलस्य भुक्तं) पुरे फलको विना देखे खाना (सम्मुर्छन त्रस विभ्रमं) उसमें सम्मूर्छन त्रस जंतुके ल होनेकी शंका रहती है। उनमें (जीवस्य ) जंतुओंका ( उत्पादनं) पैदा होना (दिष्टं) देखा जाता है। जो खाता है वह ( हिंसानंदी) हिंसामें आनंद मानता है। उसे (मांसदूषनं ) मांसका दृषण आता है।
विशेषार्थ-इन दो श्लोकोंमें ग्रंथकर्ताने मांसके दोषों में विदल, संधान, विना तोड़ा फल खाना मना किया है। दौलतरामजी उस सम्बन्धमें कहते हैं
अन्न मसूर मूंग चणकादि, तिनकी दालि जु होय अनादि । अर मेवा पिस्ता जु बदाम, चारौली आदिक अति नाम ॥१३॥ जिन जिन वस्तुनिकी है दाल, सो सो सब दधि भेला टालि । अर नो दधि भेली मिष्टान, तुरत हि खावो सूत्र प्रवाण ॥१३६॥ अंतर्मुहूर्त पीछे जीव, उपमें यह मावे जग पीव । ताते मीठा युत जो दही, अंतर्मुहूर्त पहले गही ॥१३॥ दषि गुड खावो कबहि न भोग, वरने श्रीगुरु वस्तु अनोग । फुनि तुम सुनहु भिन्न इक बात, राई लूण मिले उतपात ॥१८॥
तातें दही महीमें करे, तमो रायता कांपी रे ॥१९॥ भावार्थ-विदलका स्वरूप यह है कि जिस किसी अन्नकी या मेवाकी दो दालें होजाती हों उसको दहीके साथ मिलाकर व दहीके साथ उनकी कोई चीज बनाकर न खाये। दहीके साथ शक्कर मिलाकर दो घडीके भीतर २ खावे, परन्तु गुडको दहीमें न मिलाना चाहिये । राई, लोण, दही व छाछमें रायता बनाकर व कांजीके वडे बनाकर खाना योग्य नहीं है।
संघाणा दोषीक विशेष, सो भन्यो छानो नो असेस ॥१.१॥ भत्थाणा संधान मथान, तीन जाति इनकी जु वषानि । राई लूण कलँजी आदि, अम्बादिको बारें वादि ॥१२॥ नाखि तेलमें कर हिं अथाण, या सम दोष न सुत्र प्रमाण । त्रस जीवां तामें उपनेत, भखियां आमिष दोष लहंत ॥१०॥ नींबू आम्रादिक मो फला, लूण माहि डारे नहि भला । याको नाम होय संधान, त्यागे पंडित पुरुष सुजाण ॥१०॥ अथवा चलित रसा सब वस्तु, संधाणा जानो अप्रशस्त । बहुरि जलेषी आदिक मोहि, डोहा राव मथाणा होय ॥१.५॥ लण छाछ माहीं फल डार, केर्यादिक ने खाहिं संवार । तेहि बिगाड़े जन्म स्वकीय, जैसे पापी मदिरा पीय ॥१.६॥
॥११॥