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श्रावकाचार
बूरा, बतासा, सूखा गिदौडा शीतमें एक मास, गर्मी में पंद्रह दिन व वर्षा में आठ दिन चल सका है। वारणतरण
अन्नके पकवानमें जिसमें कुछ जलका अंश हो जैसे सुहाल, मठरी, लाडू, षर्फी, पेंडा, गुलाबजामन ॥११७॥ ४ आदि आठ पहर या चौवीस घंटे के भीतरके खाने चाहिये । जलको न डालकर घी मीठा व अन्न
* मिलाकर जो लाडू बने इसकी मर्यादा आटेके समान है। भजिया, बडा, कचौरी, पूरी घीकी
तली हुई व तेलकी बनी हुई दिनभर चल सकती है, रातवासी नहीं। दाल, भात, कडी, पतली तरकारी दो पहर या छः घंटोंके भीतर खाना योग्य है। दूधको थन धोकर निकालकर अंतर्मुहूर्त अर्थात् ४८ मिनटके भीतररगर्म करने रख दे, ऑट जानेपर वह चौवीस घंटे काममें आसका है। इसी दृधको जमाकर दही बनावे। वह भी २४ घंटेके भीतर एखालेना चाहिये । आजका बना दूसरे दिन तक । छाछ उसी दिनकी खानी चाहिये। कच्चा पानी यदि डाले तो दो घड़ी भीतर ही लेनी योग्य है। घी, तेलकी मर्यादा वहीतक है जहांतक उसका स्वाद नहीं बिगडे । मक्खनको न खाकर तुर्त उसको दो घडीके भीतर गर्म करके घी बना लेना चाहिये। उसे रस चालित होनेपर कभी नहीं खाये। पापड,पडी, मंगौडी उसी दिनकी खानी चाहिये। यदि खूब सूख जावे तो दूसरे दिनतक २४ घंटेके भीतर खालेवे।
जो नरनारी मर्यादाका ध्यान न रखकर कई दिनोंके पापड, वडी, मिठाई आदि खाते हैं वे प मांसके दोषके भागी होते हैं तथा सन्मूर्छन जंतुओंका कलेवर उदर में जानेसे रोगोंकी भी उत्पत्ति
होती है। इसलिये विचारवानको सदा शुद्ध भोजन करना चाहिये। वींधा अन्न नहीं खाना चाहिये। दिन प्रतिदिन अन्न शोधकर शुद्ध स्थानमें रसोई बनवाकर जीमना चाहिये।
विदल संघाना व पूर्णफल खानेका दोष । श्लोक-विदल संधान बंधानं, अनुरागं यस्य गीयते ।
मनस्य भावनं कृत्वा, मांसं तस्य न मुच्यते ॥ १११॥ फलस्य संपूर्ण भुक्तं, सन्मूर्छन त्रस विभ्रमं । जीवस्य उत्पादनं दिष्टं, हिंसानंदी मांसदूषनं ॥ ११२ ॥
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