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श्रावकाचार
तारणतरण १ ४
अन्वयार्थ-(यस्य) जिस भोजन या फल पा रसका (स्वाद) स्वाद (विचलित) बिगड जावे (तस्य) उसके भीतर ( सन्मूर्छन ) सम्पूर्णम बस पैदा होने लगते हैं ऐसा (उच्यते ) कहा जाता है। ४(ये नरा) जो मानव (तस्य भुक्तं ) ऐसी वस्तुको खाते हैं (ते नर ) वे मानव (तियंचाः) पशु समान अविवेकी (सति) हैं।
विशेषार्थ-मांसके दोषोंको बचानेके लिये यह बात बहुत जरूरी है कि जिस किसी वस्तुमें सन्मूर्छन त्रस जन्तु पैदा हो उसको न खाना चाहिये । हरएक भोजन जो बना हुआ ताजा होगा वह अपने स्वादमें रहेगा, वासी होनेपर रस चलित होजायगा। जो फल सड जावे गल जावे वह रस चलित होगा, जो थी या तेल अपने असली स्वाद में न होगा रस चलित होगा, ऐसे पदार्थोको खाना भावकको उचित नहीं है।
मोज्य पदार्थोकी मर्यादा क्या हैं। दौलतरामजी कहते हैंअब मुनि चून तनी मर्याद, भाषे श्रीगुरु जो अविवाद । शीतकालमें सात हि दिना, ग्रीषममें दिन पांच हि गिना ॥१७॥ वर्षारितु माही दिन तीन, आगे संघाणा गण लीन । मर्यादा वीते पकवान, सौ नहिं भक्ष्य कहे भगवान ॥१८॥ जामें अन्न जलादिक नाहिं, कछु सरदी जामाही नाहिं । बूरो और बतासा आदि, बहुरि गिदौड़ादिक जु अनादि ॥११॥ ताकी मर्यादा दिन तीस, शीतकालमें भाषी ईश । ग्रीषम पंदरा वर्षा आठ, यह धारो जिनवाणी पाठ ॥११॥ अर जो अन्न तनो पकवान, जलको लेश जु माहे जान । आठ पहर मरजादा तास, भाषे श्रीगुरु धर्मप्रकाश ॥११॥ मल वनित को चूनहितनो, घृत मीठो मिलिके को बनो । ताकी चून समान हि जान, मरजादा गिन आज्ञा मान ॥११॥ भुजिया बड़ा कचौरी पुवा, मालपुवा घृत तेलहि हुवा । इत्यादिक हैं अबरहु जेह, लुचई सोरी पूरी येह ॥११॥ ते सब गिनो रसोई समा, यह उपदेश कहें प्रति रमा । दारि मात कडही तरकारि, खिचड़ी आदि समस्त विचारि ॥११५॥
दोय पहर उनकी मर्याद, आगे श्रीगुरु कहें अखाद ॥११६॥ भावार्थ-भारतवर्षकी ऋतुके अनुसार भोजनकी मर्यादा यह है कि आटा पिसा हुआ जाड़े में सात दिन, गरमीमें पांच दिन, वर्षा में तीन दिमका लेना योग्य है। जिसमें अन्न व जलादि न हो ऐसा
॥११॥