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बारणतरण
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रिणी स्त्रीका ग्रहण है, यहां विवाहित व्यभिचारिणी स्त्रीका ग्रहण है। जो कोई परस्त्रीकी वांछार
श्रावकार मनमें करते हैं उनको सदा ही मनमें उस परस्त्रीसे सम्बन्ध करनेकी चिंता रहती है। उनसे मिलनेके लिये नाना प्रकार जाल रचा करते हैं। अशुद्ध पापकारी कामके भावों में उनकी लीनता रहती है। वे इसी हेतु मायाचार सहित वार्तालाप भी करते हैं। मन, वचन, काय तीनोंकी कुचेष्टा परस्त्रीमें रति भाव करनेसे होने लगती है। परस्त्रीके रागीके धर्म, अर्थ, काम तीनों गृहस्थके पुरुषार्थ बिगड़ जाते हैं। वह गृही धर्मको बिगाड़ लेता है। गृहस्थीको विवाह करनेका यही अभिप्राय है कि यह संतोषी रहे, संतानकी मुख्य भावनासे स्वस्त्री संतोष करे, परस्त्रीकी वांछा न करे। परस्त्रीका लोभ प्राणीको घोर संकटोंमें डाल देता है। इस लोकमें भी अपमान सहता है और परलोकमें भी अधोगतिका पात्र होता है। सुभाषितरत्नसंदोह में कहते हैंयो परिचिन्स्य भवार्णवदुःखमन्यकलत्रमभीप्सति कामी । साधुननेन विनिन्धमगम्यं तस्य किमत्र परं परिहार्यम् ॥ ५८८॥ दृष्टिचरित्रतपोगुणविद्याशीलदया दमशौच शमाद्यान् । कामशिखी दहति क्षणतो नुर्वहिरिवन्धनमूर्जितमत्र ॥ ५९१॥
भावार्थ-जो कोई संसारसमुद्रके दुःखोंको चितवन करके भी कामी है, परस्त्रीकी इच्छा . करता है उसको साधु जनोंने निंदनीय कहा है व अयोग्य बताया है। उसको पहां कुछ भी त्यागने योग्य नहीं रहा । कामकी अग्नि दर्शन, चारिज, तप, गुण, विद्या, शील, दया, संयम, शौच, शांति आदि गुणोंको क्षणमात्र में जला देती है जिस तरह अग्निकी शिखा ईधनके समूहको जला देती है।
जो गृहस्थ श्रावक धर्म पालकर अपना हित करना चाहें उनको उचित है कि अपनी विवाहिता स्त्रीमें सन्तोष रखें और हर तरह परस्त्रीके सम्बन्धसे अपनी रक्षा करे । यह व्यसन भी पीछे पड जानेसे नहीं छूटता है।
श्लोक-अबंभं कूट सद्भावं, मन वचनस्य क्रीयते।
ते नरा व्रतहीनाश्च, संसारे दुःखदारुणं ॥ १३६ ।। अन्वयार्थ-( अवमं ) अब्रह्मभाव (मन वचनस्य ) मन और वचनमें ( कूट सदभावं क्रीयते) मायाचारको जमा देता है। जो अब्रह्मकी सेवा करते हैं (ते नरा) वे मानव (व्रतहीनाश्च ) व्रत रहित ही हैं ( संसारे ) इस संसारमें (दुःखदारुणं ) महान दुःखको पाते हैं।
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