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________________ वारणतरण ॥१४०॥ मोक्षका साधन है । जितना भी व्यवहार धर्म पालों जाता है वह इस स्वानुभव रूप निश्चय मोक्षमार्गके लिये । जहां इसको लोप कर दिया जाय वहां निःसार धर्म रह जाता है। जैसे चावल विना धान्यकी भूंसी, तेल विना तिलकी भूसी निःसार है । व्यवहार धर्मको निश्चय धर्मकी अपेक्षा विना सेवन करना चालू पेलकर तेल निकालना है। शुद्धात्मानुभव ही साक्षात् उपादेय-आराधने योग्य धर्म है। योगसार में योगेन्द्रदेव कहते हैं जो निम्मल अप्पा मुणहि छन्दवि सहुववहारु । भिणसामी एड्इ भणइ लहु पावहु भव ॥ ३७ ॥ जाम न भावहु जीव तुहुं निम्मल अप्पसहास । ताम ण लब्भई सिगम' जईि माँहु तर्हि जाऊ ॥ २७ ॥ भावार्थ - जो सर्व व्यवहारको छोडकर निर्मल अस्नाको अनुभव करता है । जिनेन्द्र भगवान कहते हैं वही शीघ्र संसारसे पार होजाता है। हे जीव ! जबतक तू निर्मल आत्मा के स्वभावकी भावना न करेगा तबतक मोक्षमें गमन नहीं होसक्का, चाहे जहां जाय व चाहे जो कुछ करे । जो आत्मानुभवकी तरफ लक्ष्य दिलाते हुए व्यवहार क्रियाकांडका उपदेश देते हैं वे ही सच्चे जिनेन्द्र के तत्वको प्रकाश करनेवाले हैं । परन्तु जो मुख्य अंगको छिपाते हैं वे वास्तवमें आत्म हितकारी बातको छिपानेसे चोर हैं। चोरीके व्यसनमें प्रथम तो परकी वस्तुका ग्रहण मना किया है । जो अपने इकका पैसा है व सम्पदा है व पदार्थ है उसीमें हमको संतोष रखना चाहिये। फिर उसके दोष जो जो लगा सकते हैं उनको बताया है। जहां सरल मायाचार रहित परिणाम होगा वहां चोरीका कोई दोष नहीं लग सका है। भावोंकी सम्हाल ही मुख्य धर्म है । 1 श्लोक – परदारारतो भावः, परपंच कतं सदा । ममत्वं अशुद्ध भावस्य, आलापं कूट उच्यते ।। १३५ ॥ अन्वयार्थ – ( परवारोरतो भावः) परस्त्रीमें आसक्त जिसका भाव है वह (सदा परपंच कृतं सदा प्रपंचजाल करे व करता रहता है (अशुद्ध भावस्य ममत्वं ) उसके अशुंडे भावकों मोह है । वह (कूट आली ) मायाचार सहित वातचीत (उच्यते ) कहता रहता है । विशेषार्थ - अब यहां परस्त्री रमन व्यसनको कहते हैं। वेश्या व्यसनमें अविवाहित व्यभिचों श्रावकाचार ॥ १४०॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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