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.मो.मा. प्रकाश
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आहारादिककर धर्म होता नाहीं; शरीरका सुख हो है। शरीरका सुखकैर्थ अतिलोभ भए याचना करिए है । जो अति लोभ न होता, तो आप काहेकौं मांगता। वे ही देते तो देते, न देते तौ न देते बहुरि अतिलोभ भए यहां ही पाप भया, तब मुनिधर्म नष्ट भया और धर्म कहा साधैगा । अब वह कहै है— मनविषै तौ प्रहारकी इच्छा होय अर याचे नाहीं, तौ मायाकषाय भया अर याचनेमें हीनता आवै है, सो गर्वकरि याचे नाहीं, तौ मानकषाय भया । आहार लेना था, सो मांगि लिया । यामैं अतिलोभ कहा भया अर यातें मुनिधर्म | कैसें नष्ट भया, सो कहौ । ताकौं कहिए है—
जैस काढू व्यापारीकै कुमावनेकी इच्छा मंद है, सो हाटि ( दूकान ) ऊपरि तौ बैठे अर | मनविषै व्यापार करनेकी इच्छा भी है परन्तु काहूकों वस्तु लेनेदेनेरूप व्यापारकै अर्थ प्रार्थना नहीं कर है । स्वयमेव कोई आव अर अपनी विधि मिल, तौ व्यापार कर है । तौताकै लोभकी मन्दता है, माया वा मान नाहीं हैं । माया वा मानकषाय तौ तब होय, जब छलकरनेके अर्थि वा अपनी महन्तताकै आथ ऐसा स्वांग करें । सो भले व्यापारीकै ऐसा प्रयोजन नाहीं । तातें वाकै माया मान न कहिए। तैस मुनिनकै आहारादिककी इच्छा मन्द है, सो आहार लेनेकौं आप अर मनविष आहारलेने की इच्छा भी है, परन्तु आहारकै अर्थ प्राथना नाहीं करें हैं। स्वयमेव कोई दे, तो अपनी बिधि मिले आहार ले हैं । तौ उनकै लोभकीम न्दता है, माया
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