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वारणतरण
श्रावक्यंचार
व्यवहार करना, लेन देनमें साफ रहना, मनमें भी किसीको कष्ट देने का विचार न करना, एक पाई भी किसीकी हरनेका भाव न करना, तष ही चोरीके दोषसे बचा जासकेगा।
श्लोक-सर्वज्ञमुख वाणी च, शुद्ध तत्वं समाचरतु ।
जिन उक्तं लोपनं कृत्वा, स्तेयं दुर्गतिभाजनं ॥१३३॥ अन्वयार्य-(सर्वज्ञ ) सर्वज्ञ वीतराग अरहंत भगवानके (मुख) मुखारविंदसे प्रगट (वाणी च) वाणीके अनुसार (शुद्ध तत्वं ) शुद्ध आत्मीक तत्वका (समाचरतु) अनुभव करो। (निन उक्तं ) जिनेन्द्र के कहे
वचनको (लोपनं कृत्वा) जो न माना जायगा तो (स्तेयं ) चोरी है सो चोरी (दुर्गति भाजन) दुर्गतिमें Y पटकनेवाली है।
विशेषार्थ-यहांपर यह बताया है कि श्री सर्वज्ञ वीतराग भगवान ही यथार्थ तत्वोंके वक्ता V आप्त हैं। इनकी परम्परासे चले आए हुए आगमके अनुसार जीव अजीव तत्वका भेद समझना
चाहिये । प्रभुने बताया है कि यह संसारी जीव पुद्गल कर्मके साथ अनादिसे दूध पानीकी तरह मिले हुए चले आरहे हैं । जितनी विभाव परिणतियें होती हैं वे सब कर्मकृत विकार हैं । यदि कर्मका सम्बन्ध न हो तो आत्मामें राग, द्वेष, मोह आदिन प्रगटे। आत्माका स्वरूप यदि निश्चयनयसे विचारा जाय तो परम शुद्ध है, वीतराग है, ज्ञान, दर्शनमय ज्योति स्वरूप है, अखण्ड है, अमूर्तीक है। इस तरह भेदज्ञान सर्वज्ञके कथनानुसार प्राप्त करके अजीवसे मोह छोडकर सर्व पर पदार्थोसे वृत्तिको निरोध कर, पांच इंद्रिय और मनके विषयोंको छोडकर, समताभाव लाकर, निश्चल हो शुद्ध आत्माको ध्याना चाहिये । जैसे प्राचीन काल में श्री महावीर भगवानने, गौतमस्वामीने, सुधर्माचार्यने, जम्बूस्वामीने घ्याया था व श्री भद्रबाहु श्रुतकेवलीने व श्री कुंदकुंदाचार्यने भाया था। उसी तरह उस शुद्ध आत्मतत्वको सरल भावसे ध्याना चाहिये । जो कोई इस शुद्ध आत्मध्यानमय मोक्षमार्गका उपदेश न देकर मात्र व्यवहार धर्मका ही उपदेश देते हैं व आप भी व्यवहार क्रियाकांडमें मगन रहते हैं व दूसरोंको भी इसीमें लगाते हैं, इसीसे मोक्ष होगी, यही बुद्धि स्वयं रखते हैं व दूसरोंको कराते हैं वे भूले हुए हैं, जिनकी आज्ञाका लोप कर रहे हैं । अतएव चोरीके दोषके
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