SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बारणतरण ॥१०॥ वेश्यासक, परस्त्री व्यसन, मदिरापान, आदि अशुभ कामों में फंसा रहता है। चोरका जीवन उसकी प्रवृत्तिकी अपेक्षा महान अशुभ नारकी समान होजाता है। वह घोर पापका बच करके जा ४ श्रावकाचार दुर्गति जाता है। श्लोक-स्तेयं दुष्टप्रोक्तं च, जिनववनं विलोपितं । ___ अर्थ अनथ उत्पादी, स्तेयं व्रतखंडनं ॥ १३२ ॥ अन्वयार्थ-(दुष्टपोक्तं च) दुखकारी हितकारी वचनोंका कहना भी (स्तेयं) चोरी है। (निनवचनं विलोपित जिद्रके वचनोंका लोप करना भी चोरी है ( अर्थ अनर्थ ) अर्थका अनर्थ (उत्सादी ) करनी भी४. चोरी है। (व्रतखण्डनं) व्रतोंका खण्डन करना भी (स्तेयं) चोरी है। विशेषार्थ-यहांपर ग्रंथकर्ताने चोरीका दोष जिन २ बातोंमें आता है उनका यहां खुलासा किया है। ऐसे वचनोंका कहना जो दुष्टता लिये हुए हों, दूसरेका विगाड़ करने वाले हों, विश्वास दिलाकर घात करनेवाले हों, हिंसा, मृषा व चोरीसे गर्मित हों वे सब वचन स्तेपमें इसलिये आते हैं कि उनमें दसरेके हितका नाश करनेका गूढ अभिप्राय छिपा होता है। शास्त्रका उपदेश करते हुए जिन आज्ञाको उल्लंघन करके जो कथन जिन शास्त्रों में नहीं है इसको प्रगट करके कहना कि जिन शास्त्र में है अथवा शास्त्रके मन्तव्यको उल्टा समझाना, कमती बढ़नी बताना, इस तरह जान बझकर अपना कोई पक्ष पुष्ट करनेको व स्वार्थके साधन करने को जिन वचनको लोपकर व छिपाकर कहना सो भी चोरी है। क्योंकि यह जिनकी आज्ञाका उल्लंघन किया गया है। जो शब्दोंका अर्थ प्रकरण में होना चाहिये उसको छिपाकर कुछका कुछ अर्थ किसी स्वार्थवश कर देना यह भी भावको छिपाना है. इसलिये चोरी है। अथवा किसी कार्यको बिगाड़ देना, कोई धर्मकार्य अति लाभकारी होता हो उसको अपने वचनोंसे वा अपनी कृतिसे न होने देना अर्थका अनर्थ करना है इसलिये यह भी चोरी है। जो व्रत या प्रतिज्ञा या नियम लिया हो उसको तोड डालना, जान बूझकर उसमें दोष लगाना, अपनी कही हुई बातका उल्लंघन कर डालना यह भी चोरी है। इस तरह जो चोरीके दोषोंसे बचना चाहें उनको जिनेन्द्रकी आज्ञानुसार कहना, चलना व व्रत नियम सत्यतासे पालना चाहिये । व ऐसा वचन न कहना चाहिये जिससे दूसरेकी हानि होजाय । सरल सत्य व न्याय रूप ॥१७॥ १८
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy