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कारणतरण
श्रावकाचार विशेषार्थ-चोरी ऐसा बुरा पाप है कि जो मन में चोरी करनेका विचार भी किया जाय, तो ॥१५६४ चौर्यानंद रौद्र ध्यानका भागी होकर नायुके बंध होने लायक भावनाका करनेवाला होजाता है।
जिसका विचार भी बुरा है उस चोरीके दुःखदायक अशुचि काम में जो प्रवृत्ति करते हैं वे तो निरंतर मायाचारीके कुभावों में लीन रहते हैं, कपटके जाल बिछाए विना चोरी नहीं होसकी है। चोरी महा अनर्थका मूल है। मायाचार और लोभ कषायोंके फंदों में उसका मन रात दिन लटका रहता है। वह सुखसे न खाता है न पीता है न शयन करता है, उसके परिणामोमें सदा ही आकु. लता बनी रहती है। किसीको विश्वास दिलाकर उसके मालको हर लेना यह भी चोरी है । भोले भाई बहनोंको फुसलाकर उनका माल छीन लेना भी चोरी है। भय दिखाकर माल ले लेना, डाका डालना-गिरी पडी भूली वस्तुको उठा लेना आदि चोरी है। भीख मांगकर पेट भर लेना अच्छा है परन्तु चोरी कभी नहीं करनी चाहिये ।
श्लोकं-स्तेयं अदत्तं चिंतेय-वचनं अशुद्धं सदा ।
हीन कृत कूटभावस्य-स्तेयं दुर्गतिकारणं ॥ १३१ ॥ अन्वयार्थ (स्तेयं ) चोरी व्यसनमें फंसा हुआ जीव ( अदत्तं ) विना दी हुई वस्तुको लेना (चिंतेय ) ॐ चाहता है । (सदा) निरंतर (अशुद्धं वचनं ) मायाचारीसे पूर्ण मलीन वचनोंको कहना है (कूटभावस्य )४
मायाचारीके भावोंसे ( हीन कृत ) नीच काम परवन हरण आदि किया करता है ऐसा यह (स्तेयं ) चोरीका व्यसन (दुर्गतिकारणं ) दुर्गतिका कारण है।
विशेषार्थ-यह चोरीका व्यसन मन वचन काय तीनोंकी प्रवृत्तिको महान मायाचारीसे पूर्ण बना देता है। जैसे मार्जार मृषककी चिंतामें नित्य रहता है वैसे यह चोरीका करनेवाला दुसरेके । मालको किसतरह अपना करूं-किसतरह हरूं इस चिंतामें विचार करता हुआ पापका बंध किया करता है। क्योंकि परिणामोंके अनुसार बंध होता है। तथा जब उसकी भावना चोरीकी रहती है तब वह अपने वचनोंसे दूसरोंको विश्वास दिलाकर उनका माल किसतरह हाथ लगे ऐसे मायाचार
२३ पूर्ण वचनोंको कहता है। उसकी कायाकी प्रवृत्ति भी हीन होती है। चोरी करनेके सिवाय वह