________________
सारणतरण
॥१३॥
भावों में सदा ही आकुलता रहती है, वे भयभीत रहते हैं, वे सुखकी नींद नहीं सो सक्ते, धर्मा कर्म तो उनसे दूर भाग जाता है, वे इस जगतमें राजा द्वारा तीव्र कष्ट पाते हैं, अशुभ परिणामोंसे कुगातका बंध कर मरकरके कष्टमय गतिके पात्र होते हैं। चोरीकी आदत एक पलकी भी अच्छी नहीं । जैसे मदिरा पीनेकी आदत पड जाती है तो वह बढती जाती है छूटना कठिन होजाता है उसी तरह चोरीकी आदत बढ़ती चली जाती है, छटना कठिन होजाता है। चोर स्वयं दुःख में रहता है और हजारोंके परिणामोंको भय और दुःखोंके उत्पन्न करनेका कारण होजाता है। जो इस व्यसनमें फंस जाता है वह मानवजन्मको शीघ्र ही खो देता है, जगतमें महान अपयशका पात्र होजाता है। कुछ भी परोपकार व जगतहित नहीं कर सका है। शुद्ध आत्मीकतत्वको ज्ञान तो, उसकी मलीन बुद्धि में अतिशय कठिन होजाता है, वह तीव्र विषयभोगोंका लोभी होजाता है। इस घोर लोभसे घोर पापकर्म बांधता है। सुभाषितरत्नसंदोहमें कहते हैं
दुःखानि यानि नरकेष्वतिदुःसहानि । तिर्यक्षु यानि मनुनेष्वमरेषु यानि ।
सर्वाणि तानि मनुजस्य मवन्ति लोभादित्याकलय्य विनिहन्ति तमत्र धन्यः ॥ ८॥ भावार्थ-जो जो असहनीय दुःख नरकोंमें होते हैं व जोरभारी कष्ट तिर्यच योनिमें नरभवमें या देवगतिमें होते हैं वे सब इस मानवको लोभसे होते हैं। ऐसा जानकर जो लोभको नाश करता है वही धन्य है। चोरीका व्यसन महान लोभको बढ़ानेवाला है ऐसा जानकर इसके पास भी नहीं जाना चाहिये । चोरोंकी संगतिसे बचकर रहना चाहिये । न्यायका प्राप्त किया हुआ धन ही परिणामोको निर्मल रखता है, अन्यायका धन महान अनर्थकारी होता है।
श्लोक-मनस्य चिंतनं कृत्वा-स्तेयं दुर्गति भावना ।
___ कृतं अशुद्ध कर्मस्य-कूटभावरतो सदा ॥ १३० ॥ अन्वयार्थ-(मनस्य ) मनके द्वारा (स्तेयं ) चोरीका (चिंतनं कृत्वा) चितवन करनेसे (दुर्गतिभावना ) दुर्गतिकी भावना हुआ करती है। जो (अशुद्ध कर्मस्य ) इस मैले कामको (कृतं ) करते हैं वे ( सदा ) हमेशा ( कूटभावरतः) मायाचारीके भावों में फंसे रहते हैं।