________________
ब्राह्मणवरण
॥१३४॥
सादिकाल से फंसे हुए गृहीत मिध्वाश्वके जाल मेंसे निकलनेका उपाय क्या है। वह उपाये एक स्याद्वाद नयसे अनेकांत स्वरूप बतानेवाली जिनवाणीकी शरण है । इस जिनवाणी के मूल उपदेशक आप्त श्री अरहंत भगवान हैं जिन्होंने इस लोक में ध्रुव रूपसे पाए जानेवाले छ छः द्रव्योंका स्वरूप बताया है व जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश तथा काल इन छः द्रव्योंसे लोक भरा है। जिनवाणीने यह भी बताया है कि जीव और अजीवकी प्रवाह रूप अनादिकी व मिलते विछुडनेकी अपेक्षा सादि संगतिके कारण जीव, अजीव, आस्तव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ये सात तत्व और पुण्य तथा पाप मिलाकर नौ पदार्थ बन जाते हैं । जो कोई इन छः द्रव्य व सात तत्व व नौ पदार्थोंका भलेप्रकार श्रद्धान करता है, साथ में अपने शुद्ध आत्म तत्वका भी श्रद्धान करता है जिसमें ज्ञान चेतना लक्षण झलक रहा है, ऐसा सम्यक्ती जीव, आत्मानंदका रसिक वीतरागताका प्रेमी अधर्मके जालसे छूट जाता है । सम्यग्ज्ञानकी अपूर्व महिमा है। सुभा षितरत्न संदोह में कहा है
यथा यथा ज्ञानबलेन भीवो जानाति तत्वं भिननाथदृष्टं । तथा तथा धर्ममतिप्रसक्तः प्रजायते पापविनाशशक्तः ॥ १९० ॥
भावार्थ- जैसे जैसे ज्ञानके बलसे यह जीव जिनेन्द्र कथित तत्वको जानता जाता है तैसे तैसे पापके विनाशकी शक्ति होती जाती है और धर्ममें बुद्धि आसक्त होती जाती है। जिनवाणीका अभ्यास व मनन परम शरण है ।
श्लोक- स्तेयं अनर्थमूलं च, विटंबं असुह उच्यते ।
संसारे दुःखसद्भाव, स्तेयं दुर्गतिभाजनं ॥ १२९ ॥
अन्वयार्थ — ( स्तेयं ) चोरी (अनर्थमूलं च ) आपत्तिका मूल है (विटंबं ) आकुलतारूप (असुर) अशुभ काम (उच्यते ) कहा जाता है। इससे ( संसारे ) इस लोक में (दुःखसद नाव ) दुःखों की प्राप्ति होती है तथा यह (स्तेयं ) चोरीका व्यसन ( दुर्गतिभाजनं ) दुर्गतिमें पटकनेवाला है ।
विशेषार्थ - अब यहां छठे व्यसन चोरीके सम्बन्ध में कहते हैं । यह चोरी महा भारी पाप है । यह घोर हिंसानंदी विचार है । परके प्राणोंको हरनेके समान दूसरे के धनादिको हरना है। चोरोंके
श्रावक
॥१३४