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कारणतरण
॥१३३॥
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श्लोक - ते लिंगी मृढ़दृष्टी च, कुलिंगी विश्वासं कृतं । दुर्बुद्धि पासि बंधंते, संसारे दुःखदारुणं ॥ १२७ ॥
अन्वयार्थ – (ते लिंगी) वे भेषधारी (मुद्रढष्टी च ) जो मिथ्यादृष्टी हैं (कुलिंगी) कुलिंगी हैं। (दुर्बुद्धि ) बुद्धि रहित प्राणी (विश्वासं कृतं ) उनका विश्वास करके ( पासि) जाल में (बंधते ) बंध जाते हैं और (संसारे) इस संसार में (दुःखदारुणं ) भयानक दुःख उठाते हैं ।
विशेषार्थ - यहां यह बताया है कि जिन किन्ही मेषधारियोंको चाहे वह जैन भेष हो या अजैन भेष हो सम्यग्दर्शन नहीं है- मिथ्यादर्शन है, वे सब कुलिंगी हैं । यद्यपि भाव सम्यग्दर्शन रहित मात्र व्यवहार सम्पत्तवीको भी द्रव्यलिंगी कहा है तथापि जिसके व्यवहार सम्यक्त है वह जीवादि तत्वोंका देव गुरु शास्त्रका स्वरूप अन्यथा प्ररूपण नहीं करता है । उसको मात्र अनुभव नहीं है इसलिये स्वानुभव पूर्ण उसका कथन नहीं होता है। परन्तु आगम से विरुद्ध वह कुछ नहीं कहता है । इसलिये उनको छोडकर जो अपनेको जैन साधु व अजैन साधु मानकरके व्यवहार तत्वोंका उपदेश औरका और देते हैं, सर्वज्ञके आगमके प्रतिकूल कहते हैं, उनका उपदेश वीतराग मार्गका पोषक न होनेसे विश्वास करने योग्य नहीं होता है । परंतु रागी पुरुषोंको यही सुहाता है कि रागकी पुष्टि हो और धर्मका नाम भी होजावे इसलिये ऐसे मृढबुद्धि लोग रागवर्द्धक धर्मको भ्रमसे अपना हितकारी समझकर उसीपर विश्वास कर लेते हैं। बस, वे अधर्म के जालमें बंध जाते हैं और संसार में गहन कष्ट पाते हैं।
श्लोक – पारधीपासिमुक्तस्य, जिन उक्तं सार्थ ध्रुवं ।
शुद्धतत्वं च सार्द्ध च, अप्य सद्भाव चिन्हितं ॥ १२८॥
अन्वयार्थ — जो कोई ( जिन उक्तं ) जिनेन्द्र कथित (धुवं) अविनाशी (सार्थ) पदार्थों को (अप्प सद्भाव चिह्नितं ) आत्माकी सत्तासे लक्षण मय ( शुद्धतत्वं च सार्द्धं च ) शुद्ध तत्व सहित श्रदान करता है वह ( पारधी पासिमुक्तस्य ) पारधी जो अधर्म या अधर्म उपदेष्टा सांधु है उसके जालसे मुक्त होजाता है । विशेषार्थ - यहां यह बताया है कि अनादि कालसे फंसे हुए अगृहीत मिथ्यात्वके जाल मेंसे व
श्राव
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