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श्रावकाचार
बारणतरण NB301
विरागसर्वज्ञपदाम्बुमद्वये यती निरस्ताखिलसंगसगतौ । वृषे च हिंसारहिते महाफले करोति हर्ष भिनवाक्यभावितः ॥१५८॥
भावार्थ-जिनेन्द्रके वाक्योंको माननेवाला वीतराग सर्वज्ञ भगवानके चरणकमलों में आनन्द सहित भक्ति करता है, सर्व परिग्रहकी संगतिसे रहित गुरुके चरणों में नमन करता है, महा फलदाई
अहिंसा धर्ममें इर्ष मानता है, इनके विपरीत जो कुछ है वह संसारमें निगोद नरकादि पर्यायों में ४ पटकनेवाला अधर्म है, ऐसा मानता है।
श्लोक-जिन लिंगी तत्त्व वेदंते, शुद्ध तत्व प्रकाशकं ।
कुलिंगी तत्त्व लोपंते,, परपंचं धर्म, उच्यते ॥ १२६ ॥ अन्वयार्थ (मिन लिंगी) जिनेन्द्रकी आज्ञानुसार जिनके भेषके धारी भावलिंग सहित निम्र द्रव्यालिंग धारी गुरु (शुद्ध तत्व प्रकाशकं तत्त्व) शुद्ध आत्माके स्वरूपको प्रकाश करनेवाले तत्वको (वेदंते) अनुभवमें लेते हैं। कुलिंगी) जो जिनाज्ञा विरुद्ध भावलिंग रहित द्रव्यालंग धारी हैं वे (तत्त्व) तत्वको (लोपंते) छिपा देते हैं (परपंच) बाहरी प्रपंचरूप क्रियाकांडको (धर्म ) धर्म (उच्यते ) कहते हैं।
विशेषार्थ-स श्लोक में मुख्यतासे द्रव्यलिंगी द्वारा दिखाए हुए मात्र व्यवहार धर्मका निषेध किया है। जो निग्रंथ गुरु व्यवहार और निश्चय दोनों नयोंसे जीवादि तत्वोंको जानते हैं तथा उपा. देय रूप ध्यान करने योग्य एक अपने निर्विकल्प वीतराग आत्मसमाधिरूप भावको ही मानते हैं वे स्वयं भी शुबरात्माके अनुभवसे आत्मानन्द पाते हैं व दूसरोंको भी इसी तुसे धर्मका उपदेश देते हैं। जो भव्यजीव ऐसे आत्मज्ञानी गुरुओंके द्वारा धर्मका लाभ करते हैं वे अपना कल्याण कर लेते हैं। जो आत्म तत्वको न पहचाननेवाले द्रव्यलिंगी मात्र हैं, बाहरी भेष तो साधुका है परन्तु भीतर मोक्ष साधक नहीं हैं, शुभ क्रियाकांडको ही मोक्षमार्ग मानते हैं उसीपर बडी दृढतासे चलते हैं, कभी शुद्ध आत्म तत्वपर लक्ष्य नहीं देते हैं, उनका उपदेश भी तत्वको लोपनेवाला होता है, वे व्यवहार प्रपंच क्रिया आचरणको ही एकांतसे मोक्षमार्ग उपदेश कर देते हैं, निश्चय नयका
उपदेश ही नहीं देते हैं, आत्माकी तरफ लक्ष्य ही नहीं कराते हैं। उनके उपदेशसे अनेक प्राणी भी Y व्यहार धर्म में ही अंध हो चलने लगते हैं, वे कभी भी निश्चय सम्यक्तको नपाते हुए संसारही में करेंगे।
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