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मो.मा.
जैसें कोइ मनुष्य कोई कारणके वशते रोग बधनेके कारणनिविर्षे भी प्रवः । व्यापारा-1 प्रकाशदिक कार्य वा क्रोधादिक कार्य करे है, तथापि तिम श्रद्धानका वाकै नाश न हो है । तैसें
सो ही आत्मा कर्म उदय निमित्तके वशते बंध होनेके कारणनिवि भी प्रवत्त है । विषयसेवनादि कार्य वा क्रोधादि कार्य करै है, तथापि तिस श्रद्धानका वाकै नाश न हो है। याका विशेष निर्णय आगें करेंगे । ऐसा सप्ततत्वका विचार न होते भी श्रद्धानका सद्भाव | पाइए है । तातें तहां अव्याप्तिपना नहीं है । बहुरि प्रश्न-ऊंची दशाविषे जहां निर्विकल्प
आत्मानुभव हो है, तहां तो सप्त तत्त्वादिकका विकल्प भी निषेध किया है । सो सम्यक्त्वक | लक्षणका निषेध करना, कैसे संभवे । अर तहां निषेध संभव है, तो अव्याप्ति दूषण पाया। | ताका उत्तर--
नीचली दशाविणे सप्त तत्वनिके विकल्पनिविषै उपयोग लगाया, ताकरि प्रतीतिकौं दृढ़ | कीन्हीं, अर विषयादिकतै उपयोग छुड़ाय रागादि.घटाया, बहुरि कार्य सिद्ध भए कारणनिका | भी निषेध कीजिए है । तातें जहां प्रतीति भी दृढ़ भई अर रागादिक दूर भए, तहां उपयोग भ्रमावनेका खेद काहेकौं करिये । तातें तहां तिनि विकल्पनिका निषेध किया है । बहुरि सम्यक्त्वका लक्षण तो प्रतीति ही है । सो प्रतीतिका तो निषेध न किया। जो प्रतीति छुड़ाई होया, वो इस लक्षणका निषेध किया कहिए । सो तो हैं नाहीं । स्ो तो तत्वनिकी
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సందరూం