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________________ हो है । ऐसें इस लक्षणविर्षे अव्याप्ति दूषण नाहीं है । बरि प्रश्न-जिसकालविषै सम्यग्दृष्टी || प्रकाश विषयकषायनिके कार्यनिविषै प्रवर्ते है, तिसकालविर्षे सप्त तत्वनिका विचार ही नाही, तहाँ । श्रद्धान कैसे संभवे । अर सम्यक्त्व रहै ही है, तात तिस लक्षणविषे अव्याप्ति दूषण आवै । है। ताका समाधान, विचार है, सो तो उपयोगके आधीन हैं। जहां उपयोग लागे, तिसहीका विचार है। बहुरि श्रद्धान है, सो प्रतीतिरूप है। तातै अन्य ज्ञेयका विचार होते वा सोवना आदि। | क्रिया होते तत्वनिका विचार नाही, तथापि तिनकी प्रतीति बनी रहै है, नष्ट न हो है । ताते ।। वाकै सम्यक्त्वका सद्भाव हैं । जैसे कोई रोगी पुरुषकै ऐसी प्रतीति है-में मनुष्य हौं, तिथंच | नहीं हौं । मेरे इस कारणते रोगभया है । सो अब कारण मेटि रोगकौं घटाय निरोग होना। # बहुरि वो ही मनुष्य प्रश्न विचारादिरूप प्रवत्त है, तब वाकै ऐसा विचार न हो है ।। परन्तु | श्रद्धान ऐसे ही रह्या करै हैं । तैसें इस आत्माकै ऐसी प्रतीति है में आत्मा हों, घुगलादि । नहीं हों, मेरे आस्रवतें बंध भया है, सो अब संघरकार निर्जरा करि मोक्षरूप होना । बहुरि || सोई आत्मा अन्य विचारादिरूप प्रवते है, तब वाकै ऐसा विचार न हो है । परन्तु श्रद्धान । | ऐसा ही रह्या करें है । बहुरि प्रश्न-जो ऐसा श्रद्धान रहै है, तो बंध होनेके कारणनिविषै। केसे प्रवत्र्ते हैं । ताका उत्तर ४६३
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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