SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वारणवरण ॥१२०॥ >>> भावार्थ - शिकारी जन ऐसे निईयो होते हैं कि जो मृत भयमति रहती है, जिसका कोई रक्षक नहीं है, जो कोई अपराय नहीं करती है, जिसके शरीर मात्र धन है, जो तृणको खानेवाली है ऐसी मृगीको भी मार डालते हैं तब अन्य पशुओं की तो बात ही क्या है। एक शिकारी अपने जीवन में हजारों पशुओंका घातक होकर घोर पापबंध करता है। किसी भी मानवको शिकार के व्यसनमें नहीं पडना चाहिये। यह व्यसन धर्मको नाश करनेवाला है । श्लोक – मान्यते दुष्ट सद्भावं वचनं दुष्टरतो सदा । चिंतनं दुष्ट आनंद, पारधी हिंसानंदितं ॥ १२० ॥ अन्वयार्थ – (दुष्ट सदभावं ) दुष्ट भावोंकी ( मान्यते ) जो मान्यता करता है । (सदा वचनं दुष्टरतः ) जो सदा दुष्ट वचनों में रत है व (दुष्ट वितनं आनन्द ) दुष्ट चितवन में आनंद मानता है सो ( पारधी ) पारधी के समान (हिंसा नंदित ) हिंसा में आनन्द माननेवाला है । विशेषार्थ — जो दूसरोंके साथ दुष्टता करता है वह भी पारधी के समान है ऐसा बताते हैं । जो मानव, दुष्ट दुर्जन परका बिगाड़ करनेवाले खोटे मानवोंकी प्रतिष्ठा करता है, उनके साथ मित्रता करता है तथा जो सदा हिंसाकारी कठोर पापमय वचनोंको बोलता है, जिसके चित्तमें सदा ही दूसरेको ठगनेका, दूसरेका बुरा करनेका विचार रहता है वह हिंसानंदी मानव पारधीके समान है । जैसे शिकारी पशुओंके घातमें विचारता रहता है, उद्यमी होता है वैसे दुष्ट मानव अपने द्रव्यादिक स्वार्थवश दुष्टोंकी संगतिमें रहता है, स्वयं व उनकी सहायता से दूसरों को ठगनेके लिये मायाचारी, पूर्ण घातक, देखने में प्रिय परन्तु भीतर से गला काटनेवाले वचनों को कहता है । मायाचारसे ठगकर अपनी चतुराई पर बड़ा अभिमान करता व आनन्द मानता है । कोई २ दुष्टतासे किन्हीं भोले जीवोंको किसी झूठे मुकदमे में फंसा देते हैं और उनसे घनकी लूट करते हैं। यहां कहने का मतलब यह है कि केवल पशुका शिकार ही मृगया नहीं है परंतु जो मानव मानवोंका शिकार करते हैं, उनको सताकर उनको विश्वास दिलाकर उनके धन धान्यको हर लेते हैं। दूसरोंका नाश करके, दूसरोंमें परस्पर मतभेद कराकर, उनको मुकद्दमा लड़ाकर अपना स्वार्थ साधते हैं वे भी शिकार के ही करनेवाले पापी हैं । श्रावकाचार ॥१२७॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy