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वारणतरण
श्रावकाचा
॥४२६॥
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श्लोक-एता तु क्रिया संयुक्तं, सम्यक्तं साई ध्रुवं ।
ध्यानं शुद्ध समयस्य, उत्कष्टं श्रावकं ध्रुवं ॥ ४४४॥ अन्वयार्थ (एता तु क्रिया संयुक्त) इन ऊपर लिखित क्रियाओंको जो भलेप्रकार पालता हुआ उन्नति करे (धु सम्यक्तं साई) निश्चल सम्यग्दर्शन साथमें रक्खे (शुद्ध समयस्य ध्यानं ) तथा शुद्ध आत्माका ॐ ध्यान करे (भु उत्कष्टं श्रावकं ) वही निश्चयसे उत्कष्ट श्रावक होता है।
विशेषार्थ,-ग्यारह प्रतिमाओंकी क्रिया बताई हैं उन सबको यथायोग्य साधन करता हुआ 2 तथा पांच हिंसादि अणुव्रतोंकी भलेप्रकार उन्नति करता हुआ जो श्रावक शुद्ध सम्यग्दर्शन सहित
वर्ते। न सम्यक अतीचार लगावे, न बारह व्रतोंमें अतीचार लगावे। मुख्य लक्ष्य शुद्धात्माके ध्यान
पर रक्खे । वशी उत्कृष्ट श्रावक है। यही अडा रक्खे कि बाहरी चारित्र मोक्षमार्ग नहीं है किंतु ४ अंतरंग निश्चय मोक्षमार्गका निमित्त साधक होनेसे उसे भी व्यवहार मोक्षमार्ग कह देते हैं। वह
श्रावक शुभोपयोग रूप व्यवहार चारित्रको हेय समझता हुआ उपादेय न समझता हुआ मात्र आलम्बन जालके सेवता है परंतु जो निश्चय रत्नत्रय स्वरूप आत्मध्यानको ही मोक्षमार्ग समझ उसीका ही निरंतर अभ्यास रखता है। परिणामोंमें वीतरागता आवे शुद्वात्मानुभव हो उसीको समझता है कि मैंने जो कुछ मोक्ष मार्ग वास्तवमें साधन किया है। आत्मज्ञान व आगम ज्ञानकी निर्मलतासे ही उस्कृष्ट श्रावककी महिमा है। यह उत्कृष्ट श्रावक देशाटन करता हुआ अपने जीवनमें अनेक जीवोंको मोक्षमार्गका उपदेश देता हुआ मोक्षमार्गी बनाता है, धर्म रस आप पीता है तथा औरोंको पिलाता है, मुनि तुल्य भावना भाता है।
साधुका चारित्र। श्लोक-साधुओ साधयं लोके, रत्नत्रयं च संयुतं ।
ध्यानं तिअर्थ शुद्धं च, अबद्धं ते न दिष्टते ॥ ४४५॥
॥२६॥